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________________ २२२ कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) से मिलता-जुलता था। भारतीय छह या नौ दर्शनों में 'चार्वाक दर्शन' इस विषय में प्रसिद्ध हुआ। इन सब प्रत्यक्षवादियों या भूतवादियों की दृष्टि में इहलोक ही पुरुषार्थ था। ये आत्मा एवं कर्म नामक किसी तत्व को स्वतंत्ररूप से मानने के लिए प्रतिबद्ध एवं उत्सुक नहीं थे, जिससे अच्छे बुरे फल की या भले-बुरे पर-लोक अथवा जन्मान्तर की प्राप्ति होती हो। कर्मतत्त्व से अप्रतिबद्ध स्वच्छन्द प्रवृत्ति (मन-वचन-काया से मनमाना आचरण या कम) करना ही उनका पुरुषार्थ था। उनका मुख्य मन्तव्य सूत्र था-"जब तक जीओ, सुख से जीओ; कर्ज करके भी घी पीओ।' अर्थात्स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों का मनचाहा उपभोग करो। इन्द्रियों और मन का जी में आए वैसा उपयोग कर लो। जो कुछ उपभोग या मौज-शौक करना है, यहीं कर लो। मरने के बाद शरीर को यहीं जला देने के पश्चात् फिर कहीं आना है, न जाना है। यहीं सब खेल खत्म है। उत्तराध्ययन सूत्र में ऐसे लोगों की वृत्ति के विषय में कहा गया हैकामभोगों में आसक्त व्यक्ति नरकगामी होते हैं। वह कहता है-ये कामभोग हाथ में आए हुए हैं। भविष्य या परलोक में मिलने वाले कामभोग संदिग्ध हैं। कौन जानता है परलोक है या नहीं ? मैंने परलोक तो देखा नहीं। यहाँ कामभोगों की मौज (रति) तो प्रत्यक्ष आँखों के सामने इस प्रकार ये प्रत्यक्षवादी दार्शनिक कर्मवाद को बिलकुल नहीं मानते थे। इसलिए परलोक को मानना तो दूर रहा, इस लोक में भी वे धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ की मर्यादाओं को ताक में रखकर धर्मनिरपेक्ष निरंकुश अर्थ और काम को ही जीवन के साध्य मानते थे। निष्कर्ष यह है कि ये और इस प्रकार के पक्ष या दर्शन 'काम' और उसके साधन के रूप में अर्थ-पुरुषार्थ के सिवाय अन्य किसी पुरुषार्थ को नहीं मानते थे। निरंकुश जीवन-यापन ही उनके जीवन का लक्ष्य था। अपने हिताहित, कर्तव्य-अकर्तव्य का कोई भान या विचार करना ऐसे लोगों को अभीष्ट नहीं था। १. यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । ___ भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।। २. जे गिद्धे कामभोगेसु एगे कूडाय गच्छई । न मे दिटे परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमा रई ॥ हत्यागया इमे कामा, कालिया जे अणागया । को जाणइ परे लोए, अत्थि वा नत्थि वा पुणो ॥ -उत्तराध्ययन ५/५-६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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