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________________ विभिन्न कर्मवादियों की समीक्षा : चार पुरुषार्थों के सन्दर्भ में २२३ त्रिपुरुषार्थवादी कर्मवाद-समर्थक साथ ही उस अति प्राचीन युग में ऐसे भी चिन्तक थे, जो यह मानते थे कि मृत्यु के बाद जन्मान्तर भी है। इतना ही नहीं, वे इस प्रत्यक्ष दृश्यमान लोक के अतिरिक्त अन्य श्रेष्ठ और निकृष्ट लोक भी मानते थे। वे पुनर्जन्म और परलोक को मानते और उसका युक्तिसंगत प्रतिपादन भी करते थे। पुनर्जन्म और परलोक के कारण के रूप में 'कर्मतत्त्व' को स्वीकार करते थे। उनका कहना था कि अगर पुनर्जन्म और परलोक न हो तो यहाँ किये हुए शुभाशुभ कर्म का फल यदि यहाँ न मिले तो फिर कभी मिल ही नहीं सकता। इसलिए कर्म-सिद्धान्त को मानना अनिवार्य है। यदि कर्म न हों तो जन्म-जन्मान्तर एवं श्रेष्ठ-निकृष्ट, इहलोक-परलोक का सम्बन्ध घटित ही नहीं हो सकता। अतएव पुनर्जन्म और परलोक की मान्यता के आधार पर कर्मतत्त्व का स्वीकार करना अनिवार्य है। ये कर्मवादी स्वयं को आस्तिक एवं परलोकवादी कहते थे। इस प्रकार आस्तिक माने जाने वाले प्रत्येक विचारक, मानव, या दर्शन, धर्म-सम्प्रदाय या मत ने इहलोक-परलोक तथा इनके कारण के रूप में कर्म और कर्मफल का विचार एक या दूसरे रूप में किया है। कर्म और कर्मफल के विषय में विचार : क्यों और कैसे ? भारतीय ही नहीं, वैदेशिक संस्कृति का अनुगामी प्रत्येक व्यक्ति, जो कुछ स्वयं करता है, उसका क्या फल है ? इस विषय में जानना-समझना और विचार करना चाहता है। इसी दैनन्दिन अनुभव के आधार पर वह निश्चित करता है कि उसके लिए कौन-सा कार्य करणीय है, कौन-सा अकरणीय ? कौन सी प्रवृत्ति हेय है, कौन-सी उपादेय ? किस कर्म, या कर्म-त्याग से, अथवा निष्काम साधना से उसे प्राप्त हुए या प्राप्त होने वाले दुःख, संकट, अनिष्ट, विपत्ति अथवा दुर्गति से या दुर्दशा से बचा जा सकता है ? किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, कैसा नहीं ?' यही कारण है कि प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक काल तक का समस्त पारिवारिक, • धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक चिन्तन-मनन और निर्धारण एक या दूसरे रूप में कर्म और कर्मफल के विषय में होता आ रहा है। इसी पर से श्रुति, स्मृति, आगम, वेद, उपनिषद्, इतिहास, पुराण आदि में विभिन्न मनीषियों ने अपने अनुभव, सिद्धान्त एवं निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं। १. प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः । - किन्नु मे पशुभिस्तुल्य, किन्नु सत्पुरुषैरिव ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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