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________________ विभिन्न कर्मवादियों की समीक्षा : चार पुरुषार्थों के सन्दर्भ में २२१ __ अध्यात्म साधक श्रीमद्राजचन्द्र ने इसी सत्य तथ्य को स्वीकार करते हुए अपने भाव इस प्रकार व्यक्त किये हैं, संयम साधना के लिए मन, वचन, काया की प्रवृत्ति करते हुए यदि साधक स्व-स्वरूप में लीन रहता है, सदा सर्वदा वीतराग-आज्ञा का लक्ष्य रखता है तो वह साधक आयु समाप्त होने पर परमात्मभाव में लीन हो जाता है।' इसलिए जैनधर्म न तो एकान्ततः प्रवृत्तिप्रधान है और न ही एकान्त निवृत्ति-प्रधान। इसके मतानुसार नीति, न्याय, अहिंसादि धर्म अथवा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म, एवं आध्यात्मिकता प्रधान संवर-निर्जरामय मोक्ष-साधक धर्मलक्ष्यी प्रवृत्ति उपादेय है, और कषाय राग-द्वेष-मोह, ममत्व आदि जिस प्रवृत्ति से बढ़ते हों, उससे निवृत्ति उपादेय है। असंयम, पाप एवं अधर्म की ओर ले जाने वाली प्रवृत्ति, अथवा आलस्य, प्रमाद, असावधानी, संयम के प्रति उपेक्षा, क्रियाओं के साथ अविवेक-अयतना की ओर ले जाने वाली निवृत्ति हेय है। दो पुरुषार्थों को मानने वाले प्रत्यक्षवादी चार्वाक आदि ____ कर्मतत्त्व को मानने वाले सभी आस्तिक दर्शन एवं धर्म-सम्प्रदाय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों में से कोई वर्ग दो पुरुषार्थों को, कोई. तीन को और कोई चार पुरुषार्थों को मानते थे। इस विषय में विभिन्न विचारकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से विभिन्न मन्तव्य प्रस्तुत किये हैं। जिनकी दृष्टि में प्रत्यक्ष दृश्यमान जगत् ही सब कुछ है। वह पंचभूतों से उत्पन्न शरीर को ही सब कुछ मानता है। वही चेतनाशील तत्त्व है, उसके ‘सिवाय आत्मा नाम का कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है। इस शरीर के समाप्त होने के साथ यहीं सब कुछ समाप्त हो जाता है। वे कर्म और कर्म के फल को नहीं मानते, इसलिए स्वर्ग, नरक आदि परलोक को भी नहीं मानते। और न ही शुभ कर्म करने की, पूर्वकृत कर्मों के क्षय करने या आते हुए नये कर्मों को रोकने की प्रेरणा इनके द्वारा रचित ग्रन्थों में है, न ही इनकी ऐसी मान्यता है, और न उत्सुकता है। ऐसे प्रत्यक्षवादियों की विचारधारा में पुरुषार्थद्वय - सूत्रकृतांगसूत्र में ऐसी मान्यता को 'तज्जीव-तच्छरीरवाद' कहा गया है। इसी तरह उस युग में चतुर्भूतवादी एवं पंचभूतवादी दर्शन भी इसी मत १. संयमना हेतुथी योग-प्रवर्तना, स्वरूपलक्षे जिन-आज्ञा-आधीन जो। ते पण क्षण-क्षण घटती जाती स्थितिमा, अन्ते थाये निजस्वरूपमा लीन जो ।।अपूर्व.।। -आत्मसिद्धि गा. ५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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