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२२० · कर्म-विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२)
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साधना या सम्यक्-तपश्चरण आदि) केवल कर्मक्षय की दृष्टि से की जाती हैं, वे अबन्धक भी होती हैं, वे संवर-निर्जरामय होती हैं। जैसे कि 'दशवैकालिक सूत्र में निर्जरा (कर्मक्षय) के उद्देश्य से तपश्चर्या करने तथा वीतरागता के हेतु से ज्ञान-दर्शन-चारित्राचरण का विधान किया गया है।'
सर्वथा प्रवृत्ति त्याग तो चौदहवें गुणस्थान की भूमिका से पूर्व होना असम्भव है। अतः साधक के लिए कहा गया है कि जिस प्रकार कांटे से कांटा निकाला जाता है, उसी प्रकार अशुभ (पापजनक) प्रवृत्तियों को निकालने के लिए शुभप्रवृत्तियों का आश्रय लिया जा सकता है। इसी कारण 'उत्तराध्ययन सूत्र' में बताया गया है कि खड़े होने, बैठने, करवट बदलने, लांघने और तीव्रगति से गमन करने में तथा इन्द्रियों का प्रयोग करने में, संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ करने में शरीर को प्रवृत्त करते समय साधु यत्नपूर्वक अपने पर नियंत्रण रखे तथा प्रवृत्ति के लिए इन पांच समितियों में और निवृत्ति के लिये तीन गुप्तियों में तथा चारित्र में प्रवृत्ति करते समय अशुभ विषयों से सर्वथा निवृत्त होकर आराधना-साधना करे।"३ प्रवृत्ति-निवृत्ति का विवेक
इसी दृष्टि से जैनाचायों ने व्यवहार-चारित्र की परिभाषा की हैअशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को चारित्र समझो। अतः मन को प्रवृत्त करते समय प्रवृत्ति को व्यवहार चारित्र जानना चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र में भी प्रत्येक साधक को विधि-निषेधात्मक, अथवा ग्रहण-त्यागात्मक या प्रवृत्ति-निवृत्त्यात्मक आचरण में भी सावधान करते हुए कहा गया हैएक ओर से साधक निवृत्ति करे और एक ओर से प्रवृत्ति करे। अर्थात्असंयम से वह निवृत्ति करे और संयम में प्रवृत्ति करें। ५ १. (क) 'नन्नत्य निज्जरट्ठाए तवमहिट्ठिज्जा ।" (ख) ननत्य आरहतेहिं हेऊहिं आयारमहिट्ठिज्जा ।
-दशवकालिकसूत्र अ. ९, उ. ४ २. कण्टकेनैव कण्टकम् इति न्यायः
-न्यायविजयजी ३. ठाणे निसीयणे चेव तहेव य तुयट्टेण ।
उल्लंघण-पल्लंघणे इंदियाण य झुंजणे ॥' सरंभ-समारम्भे आरंभम्मि तहेव य।। कायं पवत्तमाणं तु नियंतेज्ज जयं जई ।। एयाओ पंच समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्येसु सव्वसो ॥
-उत्तराध्ययन अ. २४ गा. २४ से २६ तक ४. असुहादो विणिवित्ति, सुहे पवित्ति य जाण चारित्तं ।। ५. एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं ।
असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं ॥ - उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३१/२
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