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________________ विभिन्न कर्मवादियों की समीक्षा : चार पुरुषार्थों के सन्दर्भ में २१९ और प्राण हैं; तब तक उसे इन्हें टिकाने, इनसे धर्मपालन करने, आध्यात्मिक साधना करने तथा गृहस्थवर्ग को आजीविका करने एवं कुटुम्ब, समाज तथा समष्टि के प्रति अपने कर्त्तव्यों के निर्वाह के लिए अर्थ और काम पुरुषार्थ का सेवन करना पड़ता है, परन्तु वह करता है धर्मयुक्त, तथा मोक्ष-लक्ष्य में साधक पुरुषार्थ । अर्थ और काम के साथ धर्म- मर्यादा का तथा नैतिक मर्यादाओं का ध्यान रखना आवश्यक होता है। धर्म से अविरुद्ध अर्थ और काम व्यक्ति को अशुभ कर्मबन्ध से रोक देते हैं। जैसा कि 'दशवैकालिक नियुक्ति' में कहा गया है - 'धर्म, अर्थ और काम ये भले ही परस्पर विरोधी कहे जाते हैं, किन्तु वे यदि जिनवचन के अनुसार (धर्म से अनुबन्धित या धर्मानुकूल) रहते हैं, तो वे कुशल (पुण्य) अनुष्ठान में परिणत होकर (अविरोधी) हो जाते हैं। महाभारत में भी धर्म की मर्यादा में अर्थ और काम का सेवन करने की प्रेरणा की है। २ संयम के हेतु मोक्षपुरुषार्थलक्ष्यी प्रवृत्ति निर्दोष है सभी कोटि के साधक अपने जीवन में मन, वचन, काया से आवश्यक प्रवृत्तियाँ करते हैं । परन्तु यदि वे प्रवृत्तियाँ संयम के हेतु से की जाती हैं तो 'बृहत्कल्पभाष्य' के अनुसार, "उसी प्रकार निर्दोष हैं, जिस प्रकार वैद्य के द्वारा किया जाने वाला वृणच्छेद (फोड़े का ऑपरेशन) आरोग्य के लिये होने से निर्दोष होता है। " इसी प्रकार जहाँ नीति- धर्ममर्यादाओं एवं संयम साधना की दृष्टि से मोक्ष पुरुषार्थ का लक्ष्य रखकर विवेकपूर्ण प्रवृत्ति की जाती है, तो वहाँ भी वह प्रवृत्ति पापकर्म-बन्धकारक नहीं होती । 'दशवैकालिक सूत्र' में साधक को मन-वचन-काया से की जाने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति ( चलने, उठने, बैठने, सोने, खाने-पीने, बोलने आदि की क्रिया) करते समय यतना (विवेक) रखने का निर्देश किया गया है, ताकि पाषकर्म का बन्ध न हो। इसके अतिरिक्त जो प्रवृत्तियाँ (रत्नत्रय की शुद्ध १. धम्मो अत्यो कामो भिन्ने ते पिंडिया पडिसवत्ता । जिणवयणे उत्तिन्ना, असवत्ता होंति नायव्वा ॥ २. धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्मः किं न सेव्यते ? ३. संजमहेऊ जोगो पउज्जमाणो अदोसवं होइ । जह आरोग्ग निमित्तं गण्डच्छेदो व्व विज्जस्स ।। ४. जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जय सए । जयं भुजतो भासतो पावकम्मं न बंध | Jain Education international - दशवै. नियुक्ति २६२ - महाभारत - बृ. क. भाष्य गा. ३९५१ For Personal & Private Use Only - दशवै. अ. ४ www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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