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________________ कर्म - विज्ञान : कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन (२) होता है । संसारचक्र का मुख्य कारण कषाय-राग-द्वेष- मोह आदि हैं। कषायसहित प्रवृत्ति ही संसारचक्र का प्रमुख कारण है। "" धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ की मर्यादाए २१८ अतः मनुष्य जब तक चौदहवें गुणस्थान की अयोग (योगों का सर्वथा निरोध) की भूमिका पर न पहुँच जाए वहाँ तक वह संसार में है। यद्यपि बारहवें-तेरहवें गुणस्थान में मोहक्षय हो जाने से कषायों का सर्वथा अभाव हो जाने से चार घांति कर्मों का क्षय हो जाता है। इसी प्रकार अर्थ और काम पुरुषार्थ भी सामान्य मनुष्य से लेकर गृहस्थ-साधक और उच्च साधक को करना पड़ता है। उच्चसाधकों को भी अपने जीवन निर्वाह के लिए आहार, पानी, वस्त्र-पात्रादि उपकरण या ग्रन्थ-पुस्तक आदि पदार्थों को जुटाना एक तरह से अर्थ पुरुषार्थ है। हाँ, वह अर्थपुरुषार्थ किसी फलासक्ति या तीव्र कषायादि से या मूर्च्छा-ममत्वभाव से प्रेरित नहीं होता । तथा पंचेन्द्रिय विषयों (इन्द्रियार्थी) तथा मनोजन्य विषयों का भी उसे ग्रहण करना और आहारादि पदार्थों का संयमी जीवन यात्रा के लिए उपभोग करना एक तरह से उनका काम - पुरुषार्थ है, किन्तु निर्ग्रन्थों - उच्चसाधकों का अर्थ-काम- पुरुषार्थ धर्म से युक्त एवं मोक्ष पुरुषार्थ की साधना में सहायक होने से वह अशुभ कर्मबन्ध का कारण नहीं होता। इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में निर्ग्रन्थों के धर्मयुक्त अर्थ - कामपुरुषार्थ का उल्लेख किया गया है। २ गृहस्थ साधक (सम्यक्त्वी और व्रती श्रावक) को भी जीवन निर्वाह एवं जीवन-यात्रा चलाने के लिए अर्थ और काम पुरुषार्थ करना पड़ता है। परन्तु वहाँ वे दोनों पुरुषार्थ व्रत, नियम, मर्यादा, त्याग, प्रत्याख्यान आदिरूप धर्म-पुरुषार्थ से युक्त होते हैं। सामान्य मार्गानुसारी सद्गृहस्य भी जीवन में नीति, न्याय और ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि सामान्य धर्मों का पालन करते हुए अर्थ और काम का सेवन मर्यादापूर्वक करता है। मोक्षलक्ष्य धर्मयुक्त अर्थ-काम- - पुरुषार्थ निष्कर्ष यह है कि उच्चसाधक हो, गृहस्थ-साधक हो अथवा सामान्य सद्गृहस्थ हो, उसके साथ जब तक शरीर और मन है, इन्द्रियाँ १. (क) जोगा पयडिपएस ठिई अणुभागं कसायओ वुच्चइ । (ख) सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः । - तत्त्वार्थसूत्र अ. ६ सू. ५ (ग) रागं दोसं च तहेव मोह उद्धत्तुकामेण समूलजाल...... । - उत्तराध्ययन ३२/९ (घ) दुक्खं जाइ मरणं वयंति । वही, ३२/७ २. 'हंदि धम्मत्थकामाणं निग्गंथाणं सुणेह मे ।' - दशवैकालिकसूत्र अ. ६ गा. ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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