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विभिन्न कर्मवादियों की समीक्षा : चार पुरुषार्थों के सन्दर्भ में
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दुःखरूप है, और विविध आधि-व्याधि-उपाधि (शारीरिक मानसिक रोग) भी दुःखकारक हैं। अहो । निश्चित ही यह संसार एकान्त दुःखरूप है, जिसमें सांसारिक प्राणी क्लेश पा रहे हैं।"१ ।
इसलिए मोक्ष को छोड़कर या मोक्षपुरुषार्थ की उपेक्षा करके पूर्वोक्त तीनों पुरुषार्थों को अपनाना संसार-परिभ्रमण का कारण होने से एकान्त स्वाधीन एवं निराबाध आत्मिक सुख का कारण नहीं है। मोक्षपुरुषार्थ ही एकान्त, अव्याबाध एवं स्वाधीन पूर्ण सुख (आत्मानन्द) का कारण है। इसलिए कहा गया है-"कुरु कुरु पुरुषार्थ निर्वृतानन्दहेतोः।" मोक्ष के आनन्द के लिए पुरुषार्थ करो।" कौन-सी प्रवृत्ति उपादेय, कौन-सी हेय ?
यहाँ शंका हो सकती है कि पुरुषार्थ मात्र में प्रवृत्ति है, भले ही वह शारीरिक हो, वाचिक हो या मानसिक हो। तीनों प्रकार की प्रवृत्तियों को
जैनागमों की परिभाषा में त्रिविध 'योग' कहा गया है। वहाँ कहा गया हैकायिक, वाचिक और मानसिक कर्म योग है, और वही आस्रव (कर्मों के आगमन का कारण) है। वह आस्रव शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) दोनों प्रकार का होता है। अतः मोक्ष पुरुषार्थ भले ही शुभ प्रवृत्ति (शुभ योग) रूप हो, फिर भी वह शुभकर्मों के आस्रव का कारण तो है ही। तब फिर मोक्ष पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों से छुटकारा (मुक्ति) कैसे संभव है ?
इसका युक्तियुक्त समाधान जैनकर्मशास्त्रियों ने इस प्रकार किया है। साम्परायिक कर्मबन्ध से बचो, ऐपिथिक से बचना कठिन
यह सत्य है कि प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति से कर्म आते हैं। किन्तु फलाकांक्षारहित या कषाय (क्रोधादि या राग-द्वेषादि) से रहित मनवचन-काया की शुभ प्रवृत्ति या क्रिया हो, तो उससे कर्मों का आस्रव तो होता है, परन्तु उससे उन कर्मों में रसबन्ध या स्थितिबन्ध नहीं होता है, प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध ही होता है, वह ऐपिथिक कर्मबन्ध है। इसमें ‘शुभ कर्म आते हैं किन्तु वे एक समय तक रहते हैं और दूसरे समय में झड़ जाते हैं। कषायसहित मन-वचन-काया की प्रवृत्ति करने वाले के साम्परायिक कर्मबन्ध होते हैं। इससे कर्मों का रसबन्ध और स्थितिबन्ध भी
१. जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य । ___ अहो दुक्खो हु संसारो, जत्य कीसति जंतुणो ॥ -उत्तराध्ययनसूत्र १९/१५ २.. 'काय-वाङ्-मनः कर्म योगः । स आम्रवः । शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य ।'
-तत्त्वार्थसूत्र ६/१-२-३
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