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________________ १८० कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) जीव और कर्म का संयोग प्रवाहसन्तति की अपेक्षा अनादि यह तो सभी अनुभव करते हैं कि संसारी जीव सोते-जागते, उठतेबैठते, चलते-फिरते किसी न किसी तरह की हलचल किया करता है; हलचल का होना ही कर्म-सम्बन्ध (संयोग) का कारण है। संसारी जीवों के कर्म का प्रवाह कब से चला ? इसे कोई भी नहीं जानता, और न कोई बता सकता है। भविष्यकाल के समान भूतकाल भी अनन्त है। अनन्त का वर्णन अनादि. या अनन्त शब्द के सिवाय किसी दूसरे शब्द से होना असम्भव है। इसलिए कर्म के प्रवाह को अनादि कहे बिना अन्य कोई चारा नहीं है। जिस प्रकार खान के भीतर स्वर्ण और पाषाण, दूध और घृत, अण्डा और मुर्गी, या बीज और वृक्ष का संयोग (सम्बन्ध) अनादिकालीन चला आ रहा है, उसी प्रकार जीव और कर्म का भी प्रवाह सन्तति की अपेक्षा स्वयंसिद्ध अनादिकालीन मानना चाहिए। ' अनादि की व्याख्या को समझकर सादि मानने में दोष कुछ लोग अनादि की अस्पष्ट व्याख्या की उलझन से घबरा कर कर्मप्रवाह को सादि बताने लगते हैं, वे लोग स्वमतिकल्पित दोष की आशंका करके उसे दूर करने के प्रयत्न में बड़े दोष को स्वीकार कर लेते हैं कि यदि कर्मप्रवाह की आदि मानते हैं तो जीव को पहले ही अत्यन्त शुद्ध-बुद्ध होना चाहिए। फिर उसे कर्मलिप्त होने का क्या कारण ? यदि सर्वथा शुद्ध बुद्ध जीव भी कर्मलिप्त हो जाता है तो मुक्त हुए जीव भी कर्मलिप्त होने लगेंगे। वैसी स्थिति में मुक्ति को सोया हुआ संसार ही कहना पड़ेगा। परन्तु इस सिद्धान्त का निराकरण करके सभी प्रतिष्ठित आस्तिक दर्शनों ने कर्मप्रवाह के अनादित्व को तथा मुक्त जीवों को पुनः संसार में न ate की बात को एकस्वर से स्वीकार किया है। सादि-स २ द- सान्त सम्बन्ध की मीमांसा अतः यह स्पष्ट हो गया कि अभव्य जीवों का कर्म सम्बन्ध अनादिअनन्त है, और भव्यजीवों का कर्म-सम्बन्ध अनादि- सान्त है। अब रही बात तीसरे सादि - सान्त सम्बन्ध की। ऐसा कर्म सम्बन्ध तो भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीवों में पाया जाता है। अर्थात् - व्यक्तिरूप से कोई एक कर्म अनादि नहीं है । व्यक्ति की अपेक्षा से कर्म सादि है। आदिकाल वाला है और एक दिन उस कर्म की समाप्ति (भोगने के बाद क्षय) हो जाने से वह सान्त (अन्तकाल वाला) भी है। एक जीव (आत्मा) से पूर्वबद्ध कर्म अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने पर पृथक् (वियुक्त) होते जाते हैं और १. कर्मग्रन्थ भा. १ प्रस्तावना (मरुधर केसरी मिश्रीमलजी म.) पृ. ३८ २. वही, पृ. ३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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