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कर्म का अस्तित्व कब से और कब तक ? १८१
नये-नये कर्म बंधते जाते हैं। आत्मा से पुराने कर्मों के वियुक्त (अलग) होने को जैन परिभाषा में ‘निर्जरा' कहते हैं और आत्मा के साथ नये कर्मों के सम्बन्ध (युक्त) हो जाने को 'बन्ध' कहते हैं।' इस प्रकार प्रवाहरूप से कर्म के अनादि होने पर भी व्यक्तिशः वह अनादि नहीं है । और अहिंसादि के आचरण से नये कर्मों का प्रवाह रुक जाने (संवर) से तथा तप, संयम आदि के द्वारा प्राचीन (पूर्वबद्ध) कर्मों के नष्ट हो जाने से आत्मा मुक्त हो जाती है। यों कर्मों की अनादि-परम्परा प्रयत्न-विशेषों से समाप्त हो जाती है और नये कर्मों का आस्रव और बन्ध पुनः नहीं होता। अतः भिन्न-भिन्न कर्मों के संयोग का प्रवाह ही अनादिकालीन है, किसी एक कर्म - व्यक्ति का संयोग नहीं । वह तो सादि - सान्त है। किसी एक कर्मविशेष का आत्मा के साथ अनादिकाल से सम्बन्ध चला आ रहा हो, ऐसी जैन कर्मविज्ञान मान्यता नहीं है।
इसे एक उदाहरण से समझिए - मान लीजिए, एक मनुष्य ने किसी की हत्या कर दी। हत्या करने के बाद वह पकड़ा गया। उस पर अभियोग चला और अपराध सिद्ध होने से न्यायाधीश ने उसे मृत्युदण्ड का आदेश दिया। यथासमय उसे फाँसी पर लटका दिया गया। जिस कर्म (मोहनीयकर्म) के कारण उसे मृत्युदण्ड मिला, उस कर्म की दृष्टि से वह कर्म सम्बन्ध सादि हुआ, क्योंकि एक दिन उस कर्म का प्रारम्भ हुआ था, और दण्ड भोगने • के बाद आज उस की समाप्ति (क्षय) हो गई। इस दृष्टि से वह सान्त हुआ । इस दृष्टि से यह कर्म-सम्बन्ध - सादि - सान्त कहलाता है।
आशय यह है कि किसी एक कर्मविशेष को लेकर जब चिन्तन किया जाता है, तब वह कर्म-सम्बन्ध सादि - सान्त सिद्ध होता है और जब कर्मप्रवाह को लेकर चिन्तन किया जाता है, तब कर्म-सम्बन्ध अनादिकालीन सिद्ध होता है, क्योंकि जब व्यक्ति के जीवन के अतीतकाल की ओर दृष्टिपात किया जाता है, तब कोई ऐसी घड़ी नहीं मिलती, जब आत्मा कर्ममल से या कर्म-परमाणुओं के सम्बन्ध से सर्वथा रहित रहा हो। इस
१. (क) ज्ञान का अमृत
(ख) कर्मवाद : एक अध्ययन पृ. १५
(क) स वीयरागो कयसव्वकिच्चो, खवेइ नाणावरणं खणेणं ।
तहेव जं दंसणमावरेई, जं चांतराय पकरेई कम्मं । । सव्वंतओ जाणइ पासए य, अमोहणे होइ निरंतराए । अणासवे झाण समाहिपत्ते, आउक्खए मोक्खमुवेइ सद्धे ।।
(ख) कर्ममीमांसा
(ग) ज्ञानमीमांसा पृ. ३९/४०
३. ज्ञान का अमृत, पृ. ३९,४०
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-उत्तराध्ययन अ. ३२/१०८-१०९
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