SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म का अस्तित्व कब से और कब तक ? १७९ भव्यजीव का कर्म के साथ सम्बन्ध अनादि-सान्त भव्यजीव का कर्म के साथ सम्बन्ध अनादि-सान्त माना जाता है। क्योंकि भव्यजीव साधनानुरूप योग्य साधन प्राप्त होने पर सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है, तत्त्वों का ज्ञान करता है, तत्पश्चात सम्यक्चारित्र का पालन करके कर्मों को आंशिकरूप से आत्मा से पृथक् (निर्जरा) कर देता है। इसके पश्चात् सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की सम्यक् आराधना साधना करके समस्त कर्मों को क्षय कर डालता है, अर्थात् आत्मा के साथ कर्मों के सम्बन्ध को सर्वथा समाप्त कर देता है, और सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। इसी कारण भव्यजीव के कर्म-सम्बन्ध को अनादि-सान्त माना गया है। अर्थात्-कर्मप्रवाह की दृष्टि से भव्यजीव का कर्म-सम्बन्ध अनादि है किन्तु उसका अन्त अवश्य है। आत्मा और कर्म का संयोग वियोगपूर्वक नहीं होता ___ इस सम्बन्ध में एक शंका उठाई जाती है कि आत्मा और कर्मों के सम्बन्ध (संयोग) को यहाँ अनादिकालीन कहा गया है, यह कैसे ? क्योंकि विश्व में जितने भी संयोग (सम्बन्ध) होते हैं, वे सब सादि (आदिकाल वाले) होते हैं, अर्थात् संयोग-वियोगमूलक होते हैं। जिन दो वस्तुओं का संयोग पाया जाता है, वे पहले कभी न कभी वियुक्त अवश्य थीं। अतः किसी भी संयोग को अनादि नहीं कहा जा सकता। इसका समाधान भी जैनाचार्यों ने यों किया है-“संयोग वियोगपूर्वक ही हो, ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है। संयोग वियोगपूर्वक भी होता है, वियोग पूर्वरहित भी। व्यवहार में ऐसे कई संयुक्त पदार्थ भी देखे जाते हैं, जो पहले कभी वियुक्त थे ही नहीं। जैसे-खान के निकले हुए सोने को ही ले लें। वह स्वर्ण मिट्टी से संयुक्त होता है, सुनार के हाथों में जाकर जब उसका मल दूर किया जाता है, तब वह शुद्ध स्वर्ण कहलाता है। यदि कोई पूछे कि इस सोने के साथ मिट्टी का संयोग कब से हुआ ? क्या ऐसा भी कोई समय था, जब सोना और मिट्टी अलग-अलग पड़ी हों, और किसी ने दोनों को मिलाकर संयुक्त कर दिया हो ? इसका उत्तर यही मिलेगा कि स्वर्ण सदा से ऐसा ही था, स्वर्ण और मिट्टी का संयोग वियोगपूर्वक (वियोगमूलक) नहीं था। ऐसा कोई काल नहीं था, जब इन दोनों का संयोग कभी वियुक्तदशा में रहा हो। जैसे-स्वर्ण और मिट्टी आदि के संयोग (सम्बन्ध) का कोई आदिकाल नहीं है, वह अनादि है, वैसे ही जीव (आत्मा) और कर्म परमाणुओं का संयोग (सम्बन्ध) भी अनादि समझना चाहिए। १. ज्ञान का अमृत. पृ. ३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy