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________________ कर्म का अस्तित्व विभिन्न प्रमाणों से सिद्ध १५९ सोचने, समझने, सुनने, देखने, बोलने, सूंघने और स्पर्श करने तथा हलनचलन करने की शक्ति नष्ट हो जाती है। बस, यहीं उसका खेल खत्म हो जाता है। इसके बाद उसे न कहीं आना है, न जाना है। इन सब क्रियाकलापों में 'कर्म' नाम की कोई वस्तु दिखाई नहीं देती। तीर्थकर भगवान् महावीर के द्वितीय गणधर अग्निभूति ने भी भगवान् से दीक्षित होने से पूर्व कर्म के विषय में इसी प्रकार की शंका उठाई थी कि कर्म प्रत्यक्ष आदि किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता, अतः वह गधे के सींग के समान अतीन्द्रिय होने से प्रत्यक्ष नहीं है।" इसके उत्तर में भगवान् महावीर ने कर्म का अस्तित्व प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध करके उनकी शंकाओं का समाधान किया है। प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा कर्म के अस्तित्व की सिद्धि (द्रव्य) कर्म पुद्गल है और वह चतुःस्पर्शी होने के कारण सूक्ष्म है, इसलिए परोक्षज्ञानियों को इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता, जैसेपरमाणु भी पुद्गल है, किन्तु वह भी सूक्ष्म एवं अतीन्द्रिय होने के कारण प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता, किन्तु सर्वज्ञ आप्त वीतराग पुरुषों को दोनों ही प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। दूसरी बात, जो वस्तु एक को प्रत्यक्ष हो, वह सबको ही प्रत्यक्ष हो, ऐसा कोई नियम नहीं है। संसार में सिंह, व्याघ्र आदि अनेक वस्तुएँ हैं, जिनका प्रत्यक्ष सभी मनुष्यों को नहीं होता, फिर भी यह कोई नहीं मानता कि संसार में सिंह आदि प्राणी नहीं हैं। इस प्रकार कर्म का अस्तित्व भी सर्वज्ञों को प्रत्यक्ष है, इसलिए अल्पज्ञों को भी उसका अस्तित्व मानना ही चाहिए। तीसरी बात, जिस प्रकार (अल्पज्ञों को) परमाणु प्रत्यक्ष नहीं है परन्तु उसके घट आदि कार्य तो प्रत्यक्ष ही हैं, इसी प्रकार कर्म (अल्पज्ञों को) चाहे प्रत्यक्ष न हो, उसके सुख-दुःखादि रूप कार्य (फल) के प्रत्यक्ष ही हैं। इसलिए कर्म को कार्यरूप में प्रत्यक्ष मानना ही चाहिए। २ अनुमान-प्रमाण द्वारा कर्म की अस्तित्व-सिद्धि विविध अनुमानों से भी कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है- (१) जिस प्रकार अंकुररूप कार्य का कारण बीज है, उसी प्रकार सुख-दुःखादि रूप कार्य का जो कारण (हतु) है, वह कर्म ही है।' (२) इस सम्बन्ध में गणधर इन्द्रभूति का कथन है कि जिस प्रकार सुगन्धित पुष्प माला, चन्दन आदि पदार्थ सुख के और सर्पविष, कांटा आदि १. विशेषावश्यक भाष्य में गणधरवाद गा. १६१० पृ. २९ २ वही, गा. १६११ पृ. ३० ३ विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) गा. १६१२ पृ. ३१ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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