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१५८ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
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कर्म का अस्तित्व विभिन्न प्रमाणों से सिद्ध
कर्मविज्ञान : जैन संस्कृति की रग-रग में रमा हुआ
जैन संस्कृति की मूल चिन्तनधारा का एक मौलिक विशिष्ट एवं स्वतंत्र तत्त्व है - कर्म । जैनधर्म और संस्कृति के कर्ममर्मज्ञों ने कर्मतत्त्व को : लेकर जितना गहन मन्थन एवं सूक्ष्म विश्लेषण किया है, उतना अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होता । 'कर्मविज्ञान' के विश्लेषणकार जीवन की अन्तरंग और बहिरंग क्रिया-प्रक्रिया के सम्बन्ध में जब सूक्ष्म चिन्तन प्रस्तुत करते हैं, तब ऐसा मालूम होता है कि प्रत्येक प्राणी के जीवन का कण-कण और क्षण-क्षण कर्मसूत्र के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इतना ही नहीं, प्राणिजगत् की तमाम गतिविधियों, हलचलों, मानसिक - वाचिक कायिक परिवर्तनों एवं वृत्ति प्रवृत्तियों का सारा लेखा-जोखा कर्मविज्ञान के दर्पण में प्रतिबिम्बित देखा जा सकता है। जीव सृष्टि का समूचा चक्र कर्म की धुरी पर ही घूम रहा है। कर्म ही मदारी की तरह जीवरूपी वानर को मनचाहा नचा रहा है।
कर्म के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न
परन्तु दूसरी ओर चार्वाक आदि दार्शनिकों ने कर्म-विज्ञान के रहस्य से तथा इसके सूक्ष्म विश्लेषण से सर्वथा आँखें मूंद कर 'कर्म' के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है। उनका कहना है कि घट, पट, कट आदि के समान 'कर्म' नाम का कोई भी पदार्थ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। किसी के मस्तक पर भी यह अंकित नहीं होता कि यह कर्म से युक्त है अथवा वियुक्त है। जिस प्रकार भूत-प्रेत आदि से आविष्ट व्यक्ति की चेष्टाओं पर से यह जान लिया जाता है कि यह व्यक्ति भूत-ग्रस्त है, या यक्षाविष्ट है, उस प्रकार कर्मग्रस्त जीव की कोई भी ऐसी विलक्षण चेष्टा प्रतीत नहीं होती, जिससे यह ज्ञात हो सके कि यह जीव कर्मग्रस्त है। प्रत्येक जीव की शरीर, इन्द्रियाँ, मन, वाणी आदि की समस्त क्रियाएँ भी सहजरूप से होती रहती हैं। उनसे कुछ भी पता नहीं लगता कि यह जीव कर्म से युक्त है। जब शरीर का अन्त हो जाता है, तब ये क्रियाएँ भी बंद हो जाती हैं। उसके
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