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________________ १६० कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) पदार्थ दुःख के प्रत्यक्ष हेतु हैं, इन दृष्ट कारणों से सुख-दुःख होता है, तब अदृष्ट कारण रूप कर्म को क्यों माना जाए?". इसका समाधान करते हुए भगवान् ने कहा-सुख-दुःख के बाह्य कारण (साधन) समान रूप से उपस्थित होने पर भी उनके फल (काय) में जो तरतमता (विशेषता) दिखाई देती है, उसका भी कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए, क्योंकि वह विशेषता भी घट के समान कार्यरूप है। अतः सुख-दुःख में विशेषता (तरतमता) का कारण (हेतु) वही कर्म है। जैसे-सुख-दुःख के बाह्य-साधन एक सरीखे होने पर भी दो व्यक्तियों को उन (साधनों) से मिलने वाले सुख-दुःखरूप फल में तारतम्य दृष्टिगोचर होता है। अर्थात्-जिन साधनों से एक को सुख मिलता है, दूसरे को उससे कम या अधिक सुख मिलता है, अथवा नहीं भी मिलता। माला को सुख का दृष्ट कारण माना जाता है, परन्तु उसी माला को कुत्ते के गले में डाल दी जाए तो वह उसे दुःख का कारण मानकर उससे छूटने का प्रयास क्यों करता है ? इसी प्रकार विष भी सदैव दुःख का दृष्ट कारण हो तो वह कई रोगों के निवारण के रूप में सुख का कारण क्यों बनता है ? अतः मानना चाहिए कि माला, विष आदि सुख-दुःख के बाह्य साधन (कारण) दिखाई देते . हैं, उनके अतिरिक्त भी उनसे भिन्न अन्तरंग कारण कर्म है, जो सुख-दुःख की तरतमता का अदृष्ट कारण है। __ अतः सुख दुःख के अदृष्ट कारण के रूप में कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। . (३) जिस प्रकार युवाशरीर बालशरीरपूर्वक होता है, उसी प्रकार बालशरीर किसी अन्य शरीरपूर्वक होना चाहिए। वह अन्य शरीर कार्मण शरीर है, कार्मण शरीर ही कर्म है। इस प्रकार शरीररूप कार्य के निर्माण के कारणरूप में कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। न्यायदर्शन में भी धर्माधर्म (शुभाशुभ कम) से प्रेरित पंचभूतों से शरीर की उत्पति बतलाई है। __ यद्यपि पूर्वभवीय स्थूल (औदारिक) शरीर तो यहीं छूट जाता है, उससे आगामी जन्म के नये शरीर की उत्पत्ति नहीं होती। नये शरीर के १ विशेषावश्यक भाष्य (गणधरवाद) गा. १६१२ पृ. ३१ २ वही, गा. १६१३ पृ. ३१ ३ (क) वही, गा: १६१४ पृ. ३१-३२ (ख) न्यायदर्शन सूत्र, ३/२/६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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