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________________ विलक्षणताओं का मूल कारण : कर्मबन्ध १४७ प्रतिफल है, जो इस जन्म में बिना किसी पैतृक संस्कार, वातावरण एवं बचपन में शिक्षण-प्रशिक्षण के ही स्वतः सहज प्रादुर्भूत क्षमता है। इस विलक्षणता का मूल कारण पूर्वकृत कर्म के सिवाय और किसी को नहीं माना जा सकता । " स्यूथिनियन बालक में अनेक भाषाज्ञान की विलक्षणता इसी प्रकार जिस बालक को माता-पिता, विद्यालय या अन्य प्रादेशिक वातावरण से विभिन्न भाषाओं का ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ, वह सहसा विभिन्न भाषाओं में बेधड़क बोलता है, यह विलक्षणता भी पूर्वकृत शुभ कर्म के कारण है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता । सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. फर्डीनेड वान न्यूट्राइटर को उनके एक सहयोगी ने बताया कि "एक ल्यूथिनियन बालक किसी भी भाषा का कितना ही बड़ा वाक्य गद्य अथवा पद्य में आप कहें, वह बच्चा उसी भाषा में अर्द्धविराम, पूर्णविराम सहित दोहरा देता है। यही नहीं, आप बोलना प्रारम्भ करें तो वह स्वयं भी वही शब्द उसी मोड़ या लचक के साथ इस तरह शब्द से शब्द मिलाकर बोलता चला जाता है, मानो, उसे स्वयं को ही वह पाठ कण्ठस्थ हो।" 1 प्रो. फॅर्डीनेड ने कहा-"सम्भव है, वह होठों की हरकत से उच्चारण पहचानने में सिद्धहस्त हो। " अतः उन्होंने स्वयं उसकी जांच करने का निश्चय किया। उन्होंने उस बच्चे को एक कमरे में और दूसरे एक व्यक्ति को दूसरे कमरे में बिठाकर उसे कई भाषाओं में लगातार बदल-बदल कर बोलने को कहा। दोनों कमरों से माइक लाकर एक सामने के कमरे में रखे गए जिसमें फर्डीनेड स्वयं बैठे। प्रयोग प्रारम्भ हुआ तो वाकई में वे अतीव आश्चर्यचकित रह गए कि यह बच्चा एक-दो भाषाओं का ज्ञाता हो सकता है । परन्तु वह तो किसी को भी लाकर खड़ा करने पर उसी की भाषा दोहरा देता था। इसका अर्थ यह हुआ कि बिना किसी से शिक्षण-प्रशिक्षण लिये तथा आनुवंशिक परम्परा से बिना उपलब्ध किये ही, उस बालक का शिवावस्था में ही प्रत्येक भाषा एवं विद्या में निष्णात होना । प्रो. फर्डीनेड को मानना पड़ा कि ऐसी विलक्षणता किसी भी पार्थिव भौतिक सिद्धान्त से, आनुवंशिक परम्परा से या प्रोटोप्लाज्म से सम्भव नहीं है, यह विलक्षण क्षमता भौतिक बायोलोजी (जैवविज्ञान) आदि से भी अलौकिक है। अखण्ड ज्योति, जुलाई १९७९ से साभार उद्धृत पृ. १० वही, मार्च १९७८ से साभार उद्धृत पृ. ३ अखण्ड ज्योति, मार्च १९७८ के अंक से साभार उद्धृत पृ. ४ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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