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________________ १४६ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) बौद्धिक विलक्षणता का प्रतीक : यहूदी मेनुहिन हम देखते हैं कि अशिक्षा, अज्ञान और अभाव के वातावरण में भी मेधावी, विद्वान, संगीतज्ञ, गणितज्ञ आदि बालक पैदा होते हैं। यहूदी 'मेनुहिन' के माता-पिता आदि में से कोई भी संगीतकार नहीं थे। पिता स्कूल के साधारण शिक्षक थे। किन्तु मेनुहिन में बचपन से ही संगीत की विलक्षण सामर्थ्य थी। सिर्फ ८ वर्ष की आयु में उसने ब्रीथोवेव ब्राहम, बारव जैसे महानतम संगीतकारों की कठिन संगीत रचनाओं को कुशलता से प्रस्तुत कर लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया था। उन दिनों उसे भारत में नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। श्रेष्ठ संगीतज्ञों और संगीत-समीक्षकों ने जब उसका वायलिन-वादन सुना तो विस्मयविमुग्ध हो गए। टोस्कानिन जैसे विश्वविख्यात संगीत-संचालकों ने उसे अलौकिक वायलिन-वादक कहां। विश्व के शीर्षस्थ कलाकारों, वैज्ञानिकों, लेखकों, राजनीतिज्ञों और संगीतशास्त्रियों ने एक स्वर से उसकी प्रशंसा की। महान् वैज्ञानिक आइन्स्टाइन ने उसकी विलक्षण प्रतिभा देखकर भावावेशवश आनन्दातिरेक में आकर उसे बाहों में उठा लिया था। तीन वर्ष के शिशु 'मेनुहिन' की वायलिंन-वादन की सामर्थ्य विलक्षण ढंग से प्रकट हुई। उसके माता-पिता उसके लिये नकली वायलिन खेलने के लिये लाये। मेनुहिन ने उसे बजाया तो उसका संगीत उसे अच्छा नहीं लगा। उसने वह खिलौना फेंक दिया। तब माता-पिता ने असली वायलिन लाकर दिया। उसे पाते ही वह बालक उसी में लीन रहने लगा। उसकी दक्षता उभर आई। तब जाकर चार वर्ष की आयु में माता-पिता ने उसे संगीत-शिक्षक से संगीत शिक्षा दिलानी शुरू की। उसकी विलक्षण गति-मति, लगन और प्रतिभा से संगीत-शिक्षक भी विस्मित हो उठता। कहने को तो मेनुहिन ने श्रेष्ठ संगीत शिक्षकों से संगीत शिक्षा ग्रहण की, किन्तु उसके प्रत्येक शिक्षक ने यह कहा कि 'हमने इसे सिर्फ सिखाया ही नहीं, इससे बहुत कुछ सीखा भी है।' - छह वर्ष के 'मेनुहिन' ने सेन्फ्रांसिस्को में हजारों श्रोताओं के समक्ष एक श्रेष्ठ संगीत-रचना प्रस्तुत की। अगले दिन अमरीकी अखबार उसकी प्रशंसा से भरे थे। स्पष्ट है कि 'मेनुहिन' की यह विलक्षण प्रतिभा और क्षमता आनुवंशिक नहीं है। यह उसके पूर्वजन्मकृत कर्मों के संचित संस्कारों का ही २ अखण्डज्योति जुलाई १९७९ पृ. १० से सारांश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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