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विलक्षणताओं का मूल कारण : कर्मबन्ध १४३
आदमी का स्वभाव और व्यवहार हो जाता है। 'जीन' ही समस्त संस्कार सूत्रों और विभेदों का मूल कारण है। परन्तु 'जीन' तो केवल इस स्थूल शरीर का ही घटक है, इस स्थूल (औदारिक) शरीर के भीतर तेजस शरीर (विद्युतीय शरीर) है, जो उससे सूक्ष्म है और इससे भी सूक्ष्म शरीर और हैकार्मणशरीर। इसलिए 'जीन' जीव के वर्तमान जीवन के स्थूल शरीर की विचित्रता का समाधान कर पाता है। अतीत से जुड़े हुए कार्मणशरीर में अनेक जन्मों से संचित कर्मों पर से ही व्यक्ति-व्यक्ति की विलक्षणताओं का वास्तविक समाधान हो पाता है। जैविक विशेषताओं के लिए विशिष्ट 'कर्म' ही उत्तरदायी है। ग्रन्थियों का स्राव जीवों की विलक्षणता का मूल कारण नहीं .
शरीरविज्ञान शरीर में अवस्थित ग्रन्थियों के स्राव को मनुष्य की विलक्षणताओं का आधार मानता है। शरीरविज्ञानशास्त्री 'हार्मोन्स' को "सिक्रीशन ऑफ ग्लेण्ड्स" (ग्रन्थियों का स्राव) कहते हैं। ग्रन्थियों के स्राव की मात्रा में न्यूनाधिकता को वे विलक्षणता का कारण मानते हैं। परन्तु ग्रन्थियों के स्राव का सिद्धान्त भी तो इस स्थूल शरीर का ही विश्लेषण करता है। वह सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर तक नहीं पहुँचता, जो जीव के साथ अनेक जन्मों से चले आ रहे हैं। अतः ग्रन्थियों का स्राव (हार्मोन्स) ऐसा ही क्यों ? एक समान क्यों नहीं ? इसका उत्तर शरीरविज्ञान के पास नहीं, कर्मविज्ञान ही इसका यथार्थ समाधान करता है। जीव के पूर्वकृत कर्मों के अनुसार ही ग्रन्थियों के स्राव होते हैं। कार्मणशरीर में कर्मवर्गणा के एकएक स्कन्ध पर अनन्त-अनन्त कर्मलिपियाँ अंकित है, अतः विलक्षणताओं का मूल कारण कर्म ही सिद्ध होता है। विलक्षणता का मूल कारण शरीरविज्ञानमान्य संस्कार सूत्र नहीं, कर्मपरमाणु ही .. वर्तमान शरीरविज्ञान 'जीन' को शरीर का महत्वपूर्ण घटक मानता है। वह. मानता है कि स्थूल शरीर में खरबों कोशिकाएँ (Biological cells) हैं। उन कोशिकाओं में गुणसूत्र होते हैं। प्रत्येक गुणसूत्र दस हजार जीनों से बनता है । ये सारे 'जीन' अतीव सूक्ष्म संस्कारसूत्र हैं, जिनसे एक क्रोमोसोम' बनता है। मानवशरीर में ४६ 'क्रोमोसोम' होते हैं।
परन्तु 'कर्मविज्ञान-मान्य कर्म शरीरविज्ञानमान्य इन क्रोमोसोम नामक संस्कारसूत्रों से भी सूक्ष्मतर है। उसके नियमों को समझना बहुत ही । श्रमणोपासक (१0 अगस्त ७९ में प्रकाशित) रतनलालजी का लेख पृ. ३७ । वही, पृ. ३७
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