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________________ १४४ · कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) कठिन है। स्थूल बुद्धि से वे नियम समझ में नहीं आ सकते। क्योंकि 'जीन', आनुवंशिकता और रासायनिक परिवर्तन, ये तीनों सिद्धान्त स्थूल शरीर और इस जीवन तक ही पहुँच पाए हैं। आधुनिक शरीरविज्ञान भी 'जीन' तक ही पहुँच पाया है, जो (जीन) मानव के इस जन्म के स्थूल शरीर का ही अवयव है, जबकि कर्म सूक्ष्मतर (कार्मण) शरीर का अंग है। अतः कर्म इससे एक चरण और आगे है, क्योंकि वह जन्म-जन्मान्तर के कर्मवर्गणा के परमाणुओं का संवहन करता है। इसलिए जीवों की वैयक्तिक विभिन्नताओं और मानसिक-बौद्धिक विलक्षणताओं का मूल कारण कर्म ही सिद्ध होता है। बौद्धिक और मानसिक क्षेत्र की विलक्षणताएँ कर्मजन्य ही हैं आनुवंशिकी की ये मान्यताएँ शारीरिक संरचना के क्षेत्र में तो प्रायः खरी उतरती रही हैं। संतान की आँख, नाक, कान, दांत, मुंह, देह-यष्टि, अंगोपांग आदि की बनावट तो प्रायः वंशानुगत विशिष्टताओं के किसी न किसी अनुपात में सम्मिश्रण का परिणाम होती हैं। किन्तु बुद्धि, भावना, स्वभाव और आदतों आदि के मानसिक-बौद्धिक क्षेत्र में ऐसी कई विलक्षणताएँ सन्ततियों में उभरती देखी-पाई और सुनी-पढ़ी जाती हैं कि उनका आनुवंशिकी से दूर का भी सम्बन्ध नहीं सिद्ध हो पाता। बड़ी दिमागी जोड़-तोड़ के बावजूद भी यह नहीं स्पष्ट हो पाता कि आखिर अमुक व्यक्तियों की अमुक संतान में ये बौद्धिक एवं भावनात्मक विलक्षणताएँ आई कहाँ से, जो न तो उसके माता-पिता के वंश में थीं, न ही वातावरण में ? वे विशेषताएँ 'प्रोटोप्लाज्म' आदि के अंश की अभिव्यक्ति भी नहीं मानी जा सकतीं, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों में ये विलक्षणताएँ आंशिक रूप में नहीं होती, अपितु उनके समग्र व्यक्तित्व का ही वैसा गठन होता है। ऐसी स्थिति में यह मानने को बाध्य होना पड़ता है कि व्यक्तित्व की ये विलक्षणताएँ-विशेषताएँ 'आनुवंशिकी', पर्यावरण, वातावरण, या पर्यटनशील 'प्रोटोप्लाज्म' की कृपा नहीं, बल्कि उसी व्यक्ति द्वारा पिछले जन्म (या जन्मों) में अर्जित-वर्द्धित, संचित-सुरक्षित (कर्म संस्कार जनित) विशेषताएं हैं, जो जन्म से ही उसमें उभर कर आई है। १ (क) कर्मवाद (युवाचार्य महाप्रज्ञ) पृ. १६५ से साराश . (ख) श्रमणोपासक १०/८/७९ में प्रकाशित 'कर्म की विचित्रता : मनोविज्ञान के सन्दर्भ में लेख से सांराश पृ. ३८ २ अखण्डज्योति जुलाई १९७९ पृ. ९ से सारांश साभार उद्धृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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