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१४२ कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
विलक्षणताओं का मूल कारण अनेक जन्म संचित कर्म ही
यद्यपि जैनागमों में जीवन का प्रारम्भ (गर्भ में आगमन) माता-पिता के रज और वीर्य के संयोग से ही माना गया है। तथा बालक के 'जीवन' से सम्बद्ध शरीर और उसके अंगोपांग भी माता और पिता दोनों के होते हैं। तथा माता की रस- - हरणी नाड़ी के द्वारा गर्भस्थ जीव को आहारादि मिलता है, जो उसके जीवन को पुष्ट करता है।' इसलिए कर्मशास्त्रीय दृष्टि से जीव के जीवन का प्रारम्भ भले ही मनोविज्ञान से सम्मत है, किन्तु प्राणियों की विलक्षणताओं या विभिन्नताओं का समाधान इहजीवन से या आनुवंशिकता से नहीं हो सकता। इसका समाधान जीव के साथ प्रवहमान पूर्वजन्मकृत कर्म-संचय से ही हो सकता है। अर्थात् जीव के अनेक जन्मों से संचित या कृतकर्मों के ही परिणामस्वरूप व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्नता या विलक्षणता दृष्टिगोचर होती है।
जीवन के प्रारम्भ और जीव के प्रारम्भ में अन्तर
आशय यह है कि 'जीवन' का प्रारम्भ माता-पिता के रज-वीर्य - संयोग आदि से हो सकता है, किन्तु जीव का प्रारम्भ यानी उसको जो योग्यता, विलक्षणता, या दूसरे प्राणियों से भिन्नता प्राप्त होती है, उसका प्रारम्भ माता-पिता से या आनुवंशिक अथवा पारिवेशिक नहीं होता। जीवों में जो विलक्षणताएँ हैं, विभिन्नताएँ हैं, उनकी आकृति - प्रकृति, डील-डौल, सुन्दरता-असुन्दरता, लम्बापन - बौनापन आदि जो विभिन्नताएँ हैं, उनके मूल कारण न तो माता-पिता हो सकते हैं न वे आनुवंशिक या पारिवेशिक हो सकती हैं । न ही मूलभूत तथारूप प्रेरणाएँ जीवों की विलक्षणताओं का कारण हो सकती हैं, अपितु उस उस जीव की जन्म-जन्मान्तरकृत नामकर्म - प्रकृतियाँ ही उनका मूल कारण हो सकती हैं।
'जीन' केवल स्थूल शरीर का घटक, कर्म सूक्ष्मतर कार्मणशरीर का
दूसरी बात यह है कि मनोवैज्ञानिक या जैववैज्ञानिक विश्व के प्राणियों में पाई जाने वाली तरतमता या विषमता का कारण 'जीन' को मानते हैं। उनकी मान्यता है कि जैसा 'जीन' या गुणसूत्र होता है, वैसा ही
१ (क) भगवती सूत्र (ख) स्थानांगसूत्र, ठाणा ३
२ (क) श्रमणोपासक (कर्म की विचित्रता : मनोविज्ञान के सन्दर्भ में) से पृ. ३७ (ख) देखें, प्रथम कर्मग्रन्थ में नाम कर्म की प्रकृतियों की व्याख्या ।
(ग) गदि आदि जीवभेद, देहादी पोग्गलाण भेदं च ।
गदियंतर परिणमनं, करेदि णामं अणेगविहं ।
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गोम्मटसार, कर्मकाण्ड गा. १२
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