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________________ विलक्षणताओं का मूल कारण : कर्मबन्ध कुछ मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में विलक्षणता का कारण : मौलिक प्रेरणाएँ कुछ मनोवैज्ञानिक शारीरिक और मानसिक विलक्षणताओं तथा वैयक्तिक विभिन्नताओं का कारण मौलिक प्रेरणाओं (Primary motives) को मानते हैं। उनका मन्तव्य यह है कि "मूल प्रेरणाएँ सबमें होती हैं, किन्तु किसी में कोई एक मुख्य होती है, किसी में कोई दूसरी। अधिगम क्षमता (Leaming Capacity) भी सबमें होती है, किसी में अधिक होती है, किसी में कम।"१ परन्तु इनसे पूर्णतया मनःसमाधान नहीं होता किन्तु आनुवंशिकता, परिवेश या जीनों की क्षमता की न्यूनाधिकता को अथवा मूलप्रेरणाओं की गौणता मुख्यता को शारीरिक-मानसिक विलक्षणताओं या वैयक्तिक विशेषताओं का कारण बताने मात्र से पूर्ण तथा मनःसमाधान नहीं होता । विलक्षणता का सम्बन्ध 'जीवन' से नहीं, 'जीव' से है अन्ततोगत्वा यही प्रश्न उठता है कि अमुक व्यक्ति को ऐसी ही प्रेरणा, ऐसी ही आनुवंशिकता, अथवा जीनों की क्षमता में ऐसी ही न्यूनाधिकता क्यों प्राप्त हुई ? एक ही वंश परम्परा के एक साथ होने वाले बालकों में जो अन्तर पाया जाता है, उनके स्वभाव में, उनकी योग्यता और बौद्धिक क्षमता में जो न्यूनाधिकता पाई जाती है, उसका संतोषजनक समाधान न तो आनुवंशिकता से होता है, और न ही मनोविज्ञानमान्य मूल प्रेरणा से या परिवेश (वातावरण) से होता है। १४१ उचित मनःसमाधान न होने का एक विशिष्ट कारण यह भी है कि मनोविज्ञानगत जैवविज्ञान द्वारा मान्य आनुवंशिकता जीन सिद्धान्त या मूल प्रेरणाओं का सम्बन्ध 'जीवन' से है, 'जीव' से नहीं। जबकि कर्म का सम्बन्ध 'जीव' से है, जीव के अनेक जन्मों के संचित कर्म से है। मनोविज्ञान में अभी तक 'जीवन' और 'जीव' का भेद स्पष्ट नहीं है किन्तु कर्मविज्ञान में जीवन और जीव का भेद स्पष्ट है। मनोविज्ञान आनुवंशिकता, अथवा 'जीन' या परिवेश का सम्बन्ध इहलौकिक 'जीवन' से जोड़ता है, अर्थात् - इस जन्म के प्रारम्भिक जीवन से जोड़ता है, और उसी कारण से वैयक्तिक विभिन्नता और विलक्षणता बताता है।' १ 'कर्म की विचित्रता : मनोविज्ञान के सन्दर्भ में, लेख से सांराश पृ. ३५-३७ २ (क) वही, (लेखक - श्री रतनलाल जैन ) से सांराश पृ. ३८ (ख) कर्मवाद (युवाचार्य महाप्रज्ञ) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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