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________________ १४० कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) विशेषताएँ ही सर्वप्रधान कारण होती हैं, कुछ छुट-पुट नई विशेषताएँ प्रोटोप्लाज्म आदि के रूप में अवश्य सन्तान में प्रविष्ट हो सकती हैं। किन्तु . इनका मन्तव्य है कि उस प्राणी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व आनुवंशिक विशेषताओं (गुणों) के संवाहक 'जीन्स' से ही गठित होता है, उसके गुणधर्म, स्वभाव आदि का निर्माण ये वंशानुगत 'जीन्स' ही करते हैं।' जैव-वैज्ञानिकों की दृष्टि में विलक्षणता के आधार जीन्स जैव-विज्ञान ने वैयक्तिक विलक्षणताओं का आधार जीन्स को माना है। उसका विश्लेषण इस प्रकार किया गया है-जीवविज्ञान शारीरिक एवं मानसिक विलक्षणताओं तथा वैयक्तिक विभिन्नताओं की व्याख्या आनुवंशिकता (Heredity) और परिवेश (Environment - वातावरण) के आधार पर करता है। उसका मन्तव्य है कि जीवन का प्रारम्भ माता के डिम्ब और पिता के शुक्राणु से होता है। व्यक्ति के आनुवंशिक गुणों का निश्चय 'क्रोमोसोम के द्वारा होता है। 'क्रोमोसोम' अनेक 'जीनों का समुच्चय है। एक 'क्रोमोसोम' में लगभग हजार 'जीन' माने जाते हैं। ये 'जीन' ही माता-पिता के आनुवंशिक गुणों के संवाहक होते हैं। व्यक्ति-व्यक्ति में जो भेद दिखाई देता है, वह 'जीन' के द्वारा किया हुआ है। प्रत्येक विशिष्ट गुण के लिये विशिष्ट प्रकार का 'जीन' होता है। इन्हीं में निहित होती है-व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक विकास की क्षमताएँ (Potentialities) । व्यक्ति में ऐसी कोई विलक्षणता प्रकट नहीं होती, जिसकी क्षमता उसके 'जीन' में न हो,"२ इस दृष्टि से व्यक्ति-व्यक्ति में पाई जाने वाली विलक्षणता या विभिन्नता का आधार जैव-वैज्ञानिक 'जीन' की क्षमता को मानते हैं। उनका कहना है कि माता-पिता के आहार-विहार का, विचार-व्यवहार का और शारीरिक-मानसिक अवस्थाओं तथा वातावरण का प्रभाव गर्भावस्था से ही बालक पर पड़ने लगता है।' १ अखण्ड ज्योति, जुलाई १९७९ पृ. ९ २ (क) कर्मवाद (युवाचार्य महाप्रज्ञ) (ख) कर्म की विचित्रता : मनोविज्ञान के संदर्भ में (रतनलाल जैन) ३ (क) श्रमणोपासक १० अगस्त ७९ के अंक में प्रकाशित रतनलालजी जैन के, 'कर्म की विचित्रता : मनोविज्ञान के सन्दर्भ में,' लेख से सारांश : पृ. ३५ (ख) Human Anatomy and Physiology [Edited By David A. Myshne] (ग) मनोविज्ञान और शिक्षा (डॉ. सरयूप्रसाद चौबे) पृ. १६१ संस्करण सन् १९६० ४ कर्म ग्रन्य भाग १, प्रस्तावना (सम्पादक-पं. सुखलालजी संघवी) पृ. ३२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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