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________________ १३० कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) फलस्वरूप ऐसे परिवार में जन्म लेते हैं, जहाँ उन्हें उत्तम खेत, सुन्दर गृह, स्वर्णादि धन, पालतू पशु और वफादार दास आदि मिलते हैं । तथा जहाँ (मनुष्यलोक में) वे सन्मित्रों से युक्त, उच्चज्ञातिमान, उच्चगोत्रीय, सुन्दर, सुरूप, नीरोग, महाप्राज्ञ, कुलीन, यशस्वी, प्रतिष्ठित एवं बलिष्ठ होते हैं।' इसके विपरीत अन्य कई लोगों को ऐसा परिवार मिलता है, जहाँ जीवन-यापन के सुसाधनों के अभाव में वे पीड़ित, शोषित, पददलित एवं अभिशप्त जीवन जीते हैं । इससे भी बढ़कर विचित्र एवं आश्चर्यजनक बात यह है कि कई लोगों को कुसंस्कारी, धर्म-सत्कर्म-विहीन, . पापाचारपरायण, नैतिकता से भ्रष्ट, मानवता-विहीन, अनुदार एवं घृणित परिवार मिलता है, किन्तु वैसे परिवार में जन्म लेने पर भी कुछ व्यक्ति अहिंसक, सच्चरित्र, उदारस्वभाव के एवं धर्मनिष्ठ निकलते हैं। वे उक्त परिवार के पापाचरण से उदासीन एवं दूर रहते हैं। जैसे-राजगृह-निवासी कालसौकरिक का पुत्र सुलस कसाई-कर्म से बिलकुल उदासीन, पापभीरु एवं अहिंसापरायण रहा । इसी प्रकार हरिकेशबल मुनि को अपने गृहस्थजीवन का परिवार चाण्डालकुल वाला, कुसंस्कारी एवं मानवताविहीन मिला था, किन्तु वह अपने पूर्वकृत शुभकर्म के कारण उसी परिवार में रहकर मृदुस्वभाव का एवं निर्लिप्त बना ।२ ___ आशय यह है कि विभिन्न प्रकार के परिवार का मिलना तो पूर्वकृत कर्मजन्य ही है, आनुवंशिकताजन्य नहीं । (३) सामाजिक जीवन-सामाजिक जीवन में नाना प्रकार की विसदृशताएँ पाई जाती हैं। समाज समविचार-आचारशील मनुष्यों का समूह होता है । परन्तु वह भी अनेक जातियों-उपजातियों, कौमों, वंशों और कुलों तथा अनेक वर्णों, खानदानियों और बिरादरियों में बँटा हुआ है। फिर प्रत्येक जाति (ज्ञाति), वंश, कुल, खानदान और बिरादरी आदि के रहन-सहन, संस्कार, परम्परा, रीति-रिवाज, धर्म-सम्प्रदाय (धर्मसंघ) गत संस्कार आदि में बहुत ही अन्तर पाया जाता है । कई जातियों, कौमों एवं धर्म-सम्प्रदायो (पंथों) में पशुबलि, नरबलि, कुर्बानी (पशुवध), मांसाहार, मद्यपान आदि की क्रूर, अमानवीय एवं घृणित हिंसक प्रथाएँ हैं तो कई जातियों, कौमों, धर्मसम्प्रदायों या वंश परम्परा में मद्य, मांस, पशुबलि, आदि क्रूर हिंसक प्रथाएं बिलकुल नहीं हैं। १ उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३ गा. १६-१७-१८ २ (क) आवश्यक कथा, (ख) उत्तराध्ययन सूत्र अ. १२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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