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________________ कर्म अस्तित्व का मुख्य कारण : जगत्वैचित्र्य १३१ कई समाज अकारण ही या सामान्य कारणवश दूसरों से लड़नेभिड़ने और सत्ता हासिल करने में अपना गौरव समझते हैं, जबकि कई समाज शान्ति से जीवन-यापन करना पसन्द करते हैं । कई समाज बहुत ही सात्विक ढंग से अल्प - आरम्भ और अल्पपरिग्रह से अपना गुजर-बसर करते हैं, जबकि कई समाज बहुत ही आडम्बर, प्रदर्शन और ठाठ-बाट से महारम्भ और महापरिग्रह से जीवन बिताने में अपनी शान-शौकत समझते パ इसके अतिरिक्त एक व्यक्ति सामाजिक दृष्टि से सम्मानित और प्रतिष्ठित है । उसे समाज का अध्यक्ष या महामंत्री बनाया जाता है। वह समाज की श्रद्धा का केन्द्र बन जाता है । जबकि किसी को अध्यक्षादि पदों से च्युत कर दिया जाता है। उसके प्रति अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उसे समाज या संस्था से बहिष्कृत कर दिया जाता है। वह समाज में घृणा एवं उपहास का पात्र बन जाता है। इन और ऐसी ही सामाजिक विषमताओं या विभिन्नताओं का मूल कारण कर्म को ही मानना पड़ेगा। (४) राष्ट्रीय जीवन - राष्ट्रीय जीवन में भी नाना प्रकार के विभेद दृष्टिगोचर होते हैं । एक ही राष्ट्र कई प्रान्तों, प्रखण्डों, प्रदेशों, जनपदों, पंचायतों, जिलों आदि में बंटा हुआ होता है । फिर प्रत्येक राष्ट्र की ही नहीं, उसके अन्तर्गत प्रान्त आदि की वेशभूषा, प्रकृति, संस्कृति, सभ्यता, शिष्टाचार, भाषा आदि के साथ-साथ उनकी प्रकृतिगत क्रूरता - सौम्यता, मानवीयता-अमानवीयता, देशद्रोह - देशमोह, राष्ट्रभक्ति-अभक्ति, बफादारी-गैरवफादारी, निर्बलता सबलता, दुर्व्यसनता-दुर्व्यसनमुक्ति आदि विभिन्नताएँ दृष्टिपथ में आती हैं। उनका कारण उस उस राष्ट्र या प्रान्त में जन्मे हुए लोगों के पूर्वकृत कर्म ही हो सकते हैं। (५) मनुष्यों का साम्प्रदायिक जीवन' भी विभिन्न सम्प्रदायों, मजहबों, तों-पथों का अजायबघर बना हुआ है। उसमें वर्तमान में धर्म की मात्रा लायः कम और पारस्परिक सम्प्रदायादिगत राग-द्वेष, ईर्ष्या, आसक्ति, मोह तथा प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा की लालसा, पदों और उपाधियों की तमन्ना, दूसरे सम्प्रदायादि की निन्दा, आलोचना, अप्रतिष्ठा, आक्षेप-प्रत्याक्षेप, खण्डन कर्मग्रन्थ भा. १, (विवेचन, पं. सुखलालजी) पृ. ३३ ज्ञान का अमृत, पृ. २८ (क) ज्ञान का अमृत, पृ. ३८ . (ख) कर्मवाद : एक पर्यवेक्षण ( उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) (धर्म और दर्शन) पृ. ४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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