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________________ ११६ कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व ( १ ) ভি कर्म अस्तित्व का मुख्य कारण : जगत्वैचित्र्य जैन संस्कृति का उज्ज्वल धवल प्रासाद लाखों करोड़ों वर्षों से कर्मविज्ञान की सुदृढ़ भित्ति पर खड़ा है । जैन संस्कृति की प्रेरक प्रवृत्तियों, उसके मौलिक भावों एवं उसके अन्तस्तल को हृदयंगम करने के लिए उसके द्वारा व्याख्यायित कर्मविज्ञान को समझना परम आवश्यक है । जैनदर्शन अपने अकाट्य तर्कों, युक्तियों और प्रमाणों के आधार पर 'कर्म' के अस्तित्व, को सिद्ध करता है । जगत् का वैचित्र्य : कर्मों के अस्तित्व का प्रबल प्रमाण 'कर्म' के अस्तित्व का सर्वाधिक प्रबल प्रमाण है - जगत् का वैचित्र्य, अर्थात् - जगत् के प्राणियों की विविधरूपता, उनके सुख-दुःखों की विभिन्नता, उनकी आकृति-प्रकृति-संस्कृति में पृथक्ता, उनके संस्कारों एवं विकारों के चयापचय, उनके स्वभाव और विभाव की दूरता निकटता तथा एक ही जाति के प्राणियों के असंख्य प्रकार और असंख्य आकार 'कर्म' के अस्तित्व का स्पष्ट डिण्डिम घोष करते हैं। 'अभिधर्मकोष' और ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य में भी इस लोक विचित्रता तथा जीवों की विभिन्नताओं का कारण 'कर्म' को ही माना गया है। " सिद्ध और संसारी जीवों के अन्तर का कारण : कर्म इस विराट् विश्व में चारों ओर दृष्टिपात, चिन्तनचञ्चुपात और विश्लेषण करने से यत्र-तत्र सर्वत्र सर्वतोव्यापी विषमता, विविधता और विचित्रता दृष्टिगोचर होती है । निश्चयदृष्टि से सभी जीव (समस्त आत्माएँ) स्वभाव और स्वरूप की अपेक्षा से समान हैं। जैसा सर्वकर्ममुक्त सिद्ध-परमात्मा का स्वरूप है, वैसा ही एक निकृष्टतम निगोद के जीव का स्वरूप है । उसमें निश्चयदृष्टि से कोई भेद या कोई अन्तर नहीं है । फिर १ (क) कर्मजं लोकवैचित्र्यम् । - अभिधर्मकोष ४ / १ (ख) ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य २/१/१४ २ सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया । Jain Education International - द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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