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________________ प्रेतात्माओं का साक्षात और सम्पर्क : पुनर्जन्म का साक्षी १०९ कि तुम्हारे पति का कुछ दिनों के पश्चात् ही 'कोबे' में देहान्त हो जाएगा। महारानी दूसरे ही दिन 'कोबे पहुँची तो वहाँ सम्राट रोगशय्या पर मूर्च्छित थे। महारानी के पहुँचते ही उन्होंने आँखें खोली और फिर सदा के लिए आँखें मूंद लीं।' हिन्दू धर्म में पितरों को मानने, पूजने और समय-समय पर उनके लिए कुछ दान देने का बहुत रिवाज है। वस्तुतः जिनमें पितरों के प्रति कृतज्ञता, श्रद्धा और सद्भावना होती है, उन्हें ही वे सहयोग प्रदान करते हैं। वे संकटों की पूर्व सूचना देते हैं, आसन्न खतरों से बचने का उपाय बताते हैं, तथा उन्नति-अवनति का पूर्व-ज्ञान भी करा देते हैं। यह जरूर है कि जिनके पुण्यकर्म प्रबल होते हैं, उनको वे सहायता देने में निमित्त बनते हैं। उन्हें पथनिर्देश, बहुमूल्य सुझाव एवं सत्कार्य के लिए प्रोत्साहन भी उनसे प्राप्त होता है। प्रेत के माध्यम से अनेको अविज्ञात जानकारियाँ प्राप्त सर ओलिवर लॉज ने आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म आदि के अस्तित्व को आवश्यक अन्वेषणपक्ष मानकर 'साइकिक रिसर्च सोसाइटी' की स्थापना की। अपनी शोध दृष्टि का समुचित प्रयोग करके उन्होंने न केवल आत्मा और कर्म के अस्तित्व तथा मरणोत्तर जीवन की यथार्थता स्वीकार की, वरन् प्रेतात्माओं का साक्षात् करने तथा उनसे सम्पर्क करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। उनका पुत्र 'रेमण्ड' प्रथम विश्वयुद्ध में मारा गया था। उसकी मृतात्मा से सम्पर्क करने और उसके माध्यम से अनेकों अविज्ञात जानकारियाँ प्राप्त करने में वे सफल हुए, जिन्हें जांचने-परखने पर पूर्णतया सत्य सिद्ध हुई। प्रेतात्मा.का स्वीकार : ठोस प्रमाणों के आधार पर - उनके समकालीन सर विलियम क्रुक्स ने भी प्रेतात्मा सम्बन्धी अपने अन्वेषणों का विवरण 'रिसर्च इंनेट फेनोफिनम् ऑफ स्प्रिच्युएलिज्म' में प्रकाशित किया है। इसी तरह डॉ ए. रसल वालेस और सर विलियम वैरेट आदि ने भी आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व किन्हीं किंवदन्तियों या पूर्वप्रचलित मान्यताओं के आधार पर नहीं, वरन् उपलब्ध ठोस प्रमाणों के आधार पर स्वीकार किया है। १ अखण्ड ज्योति मार्च १९७९ में प्रकाशित घटना से पृ. ३४ २ वही, मार्च १९७९ में प्रकाशित घटना से पृ. ३३ ३ वही, मार्च १९७६ पृ. १३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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