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________________ प्र.1352 भाव पूजा किसे कहते है ? उ. परम भक्ति भाव के संग जिनेश्वर परमात्मा के अनन्त चतुष्टय आदि गुणों का कीर्तन, ध्यान, जाप, स्तवन आदि करना, भाव पूजा है 1 प्र. 1353 आत्मोन्नति तो वीतरागता से होती है पूजा तो राग है, फिर पूजा से आत्म कल्याण कैसे सम्भव है ? पूजा का राग लौकिक प्रयोजन की सिद्धि नहीं वरन् लौकिक प्रयोजन से निवृत्ति स्वरुप है । यदि पूजा का लक्ष्य लौकिक सम्पदा की प्राप्ति है, तो वह संसार वृद्धि का कारण है। चूंकि अरिहंत परमात्मा स्वयं राग - द्वेष से मुक्त है, अत: लौकिक प्रयोजन सिद्धि हेतु उनकी पूजा नही की जाती है। इसलिए पूजा का राग प्रशस्त राग जो परम्परा से मोक्ष प्रदायक है, शुभ है, श्रेष्ठ है एवं पूजा में शुभ राग की मुख्यता रहने से पूजक अशुभ राग रुप तीव्र कषायादि पाप परिणति से बच जाता है तथा वीतराग परमात्मा की पूजा से सांसारिक विषय वासना के संस्कार धीरे धीरे नष्ट होते जाते है और अध्यात्म रुचि बढती है । अन्त में राग भाव का अभाव करके पूजक सर्वज्ञ पद को प्राप्त कर स्वयं पूज्य हो जाता है । उ. की है उसका उपसंहार या तात्कालिक समाप्ति को विसर्जन कहते है । 376 Jain Education International दिगम्बर परम्परानुसार For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004240
Book TitleChaityavandan Bhashya Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVignanjanashreeji
PublisherJinkantisagarsuri Smarak Trust
Publication Year2013
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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