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________________ देव ऐसे कौन कौन से स्व समान फल दूसरों में भी उत्पन्न करने में सक्षम होते है | आराध्य देव की उदार प्रवृत्ति को बताने हेतु आठवें स्थान पर 'आत्म तुल्य पर फल कर्तृत्व नामक (निज समफलद) संपदा : का उपन्यास करते हैं । 230 अंत में दीर्घदृष्टा का मन यह जानने को उत्कंठित होता है कि ऐसे विशिष्ट गुणों के धारक हमारे आराध्य देव अंत में जाकर कौन से प्रधान अक्षय गुण, प्रधान अक्षय फल एवं अभय के स्वामी होते है, उनकी ऐसी जिज्ञासा के शमनार्थ यहाँ नौवें स्थान पर प्रधानगुण - परिक्षय-प्रधान फल प्राप्ति 'अभय संपदा' का उपन्यास किया गया । इस प्रकार की जिज्ञासा जिज्ञासु के मन में क्रमश: तरंगित होती है इसलिए जिज्ञासा की तृप्ति हेतु तदनुरूप क्रम से ही संपदा का उपन्यास करना उचित प्रतीत होता है । ध्येय प्र.881 नमुत्थुणं सूत्र में नमस्कार करना साधक ( ध्याता ) का मुख्य है फिर इसमें सूत्रकार ने उनकी संपदाओं का उपन्यास क्यों किया ? उ. उपन्यास से यह ज्ञापित करना कि इतनी संपदाओं से सम्पन्न श्री अर्हत् परमात्मा मोक्ष प्राप्ति में कारणभूत है, क्योंकि इन संपदा - गुणों की ऐसी महिमा है कि वे जीवों के मोक्षमार्ग की साधना के 1. गुणसम्पन्न परमात्मा मोक्षकारक है, परमात्मा की प्रेरक होते है । संपदा में वर्णित अनन्यलभ्य गुण ऐसे है; जो हमारे मोक्ष प्राप्ति में कारण भूत है । 2. अरिहंत परमात्मा के संपदा - गुणों के प्रति बहुमान भाव शुभानुष्ठान को भावानुष्ठान बनाता है । 3. सम्यग् अनुष्ठान (भवानुष्ठान) हेतु अशुभ कर्मों का क्षय एवं शुभ कर्मों का उपार्जन आवश्यक है 1 Jain Education International शक्रस्तव की संपदा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004240
Book TitleChaityavandan Bhashya Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVignanjanashreeji
PublisherJinkantisagarsuri Smarak Trust
Publication Year2013
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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