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क्रान्तस्य शुभेषु एव क्रमणात्प्रतीपं क्रमणम् ।
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश स्वोपज्ञ वृत्ति शुभ योग से अशुभ योग में गये हुए आत्मा का पुनः शुभ योग में आना, प्रतिक्रमण है। स्वस्थानाद् यत्परस्थानं, प्रमादस्य वशाद् गतः । तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्चते ॥
आवश्यक वृत्ति (आ. हरिभद्रसूरिजी. म.) अर्थात् प्रमादवश स्वस्थान (स्वभाव) से परस्थान (विभाव दशा) में गयी आत्मा का पुनःस्वस्थान में आना, प्रतिक्रमण कहलाता है । क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में वर्तमान आत्मा का पुनः 'क्षायोपशमिक' भाव में आना, प्रतिक्रमण कहलाता है। भूलों को स्मरण कर पश्चाताप करना, प्रतिक्रमण है। दूबारा उन भूलों को नं दोहराने का संकल्प करना, प्रतिक्रमण है। मिच्छत्त पडिक्कमणं तहेव अस्संजमे य पडिक्कमणं । कसायाण पडिक्कमणं जोगाण च अप्पसत्थाणं ॥ अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति, कषाय व अशुभ योग से निवृत्त होना,
प्रतिक्रमण है। प्र.728 प्रतिक्रमण से त्रैकालिक पापशुद्धि कैसे होती है ? (काल की अपेक्षा
से प्रतिक्रमण के भेद) उ. आचार्य भद्रबाहु स्वामी के अनुसार प्रतिक्रमण अतीत काल में लगे दोषों
की परिशुद्धि के साथ वर्तमान और भविष्य के दोषों की भी शुद्धि करता
है। 'प्रतिक्रमण शब्दों हि अत्राशुभयोगनिवृत्ति मात्रार्थः सामान्यतः -- परिगृह्यते तथा च सत्यतीत विषयं प्रतिक्रमण निन्दाद्वारेण अशुभयोग
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ चैत्यवंदन भाष्य प्रश्नोत्तरी
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