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________________ निवृत्ति रेवेति, प्रत्युपनविषयमपि सेवरद्वारेण अशुभयोग निवृत्तिरेव अनागत विषयमपि प्रत्याख्यानद्वारेण अशुभयोगनिवृत्तिरेविति न दोष इति ।' अतीतकाल के दोषों की विशुद्धि आलोचना प्रतिक्रमण में की जाती है, वर्तमान में भी साधक संवर साधना में रहने से पापों से निवृत्त हो जाता है । साथ ही प्रतिक्रमण के दौरान वह प्रत्याख्यान करता है जिससे वह भावी दोषों से बच जाता है। आचार्य हरिभद्र सूरिजी अईयं पडिक्कमामि पडुपन्नं संवरेमि अणागयं पच्चक्खामि" । अर्थात् भूतकाल के अशुभ योग से निवृत्ति, वर्तमान में शुभ योग में प्रवृत्ति और भविष्य में भी शुभ योग में प्रवृत्ति करुंगा। इस प्रकार से प्रतिक्रमण द्वारा त्रैकालिक परिशुद्धि साधक करता है। आवश्यक नियुक्ति प्र.29- अनुयोग द्वार सूत्र के अनुसार प्रतिक्रमण के प्रकारों का नामोल्लेख कीजिए ? उ. दो प्रकार- 1. द्रव्य प्रतिक्रमण 2. भाव प्रतिक्रमण । .. 1. द्रव्य प्रतिक्रमण - एक स्थान पर अवस्थित होकर बिना उपयोग के यश प्राप्ति की अभिलाषा से यंत्र के समान प्रतिक्रमण करना, द्रव्य प्रतिक्रमण कहलाता है। 2. भाव प्रतिक्रमण - दृढ निश्चय के साथ उपयोग पूर्वक कृत पापों की आलोचना करते हुए भविष्य में वे दोष न लगे, उसका प्रतिक्रमण करना, भाव प्रतिक्रमण कहलाता है । प्र.730 स्थानांग सूत्र में प्रतिक्रमण के कितने प्रकार बताये है नाम लिखें ? उ. छः प्रकार - 1.उच्चार प्रतिक्रमण 2. प्रस्रवण प्रतिक्रमण 3. इत्वर प्रतिक्रमण 4. यावत्कथिक प्रतिक्रमण 5. यत्किचित्-मिथ्या प्रतिक्रमण 6. ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ आठवाँ वर्ण द्वार 196 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004240
Book TitleChaityavandan Bhashya Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVignanjanashreeji
PublisherJinkantisagarsuri Smarak Trust
Publication Year2013
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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