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________________ कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बंध करता है, वह सकृबंधक कहलाता है। प्र.650 भवाभिनंदी से क्या तात्पर्य है ? उ. संसार रसिक,मोक्ष के प्रति अरुचि भाव रखने वाला जीव, जिसे संसार की पीड़ा, जन्म, मरण, रोग, शोक, दरिद्र आदि के प्रति खेद भाव नही होता है,वह जीव भवाभिनंदी कहलाता है। प्र.651 भवाभिनंदी जीव के लक्षण बताइये ? उ. "क्षुद्रो लोभरतिर्दीनों मत्सरी भयवान् शठः अज्ञो भवाभिनंदी स्यान्निष्फलारंभ संगत"। अर्थात् क्षुद्र, लोभी, रति, दीनों को दुःखी करने वाला, भयभीत, शठ, द्वेषी, अज्ञानी, अगंभीर लक्षणों वाला जीव भवाभिनंदी होता है। प्र.652 भवाभिनंदी जीव किस कारण (हेतु) से धर्म करता है ? उ. आहार प्राप्ति,पूजा, यश प्राप्ति हेतु, उपधि हेतु, बडप्पन व अहंकर के पोषण हेतु धर्म करता है। प्र.653 मार्गाभिमुख किसे कहते है ? उ. मार्ग यानी चित्त, अभिमुख-अवक्रगमन अर्थात् चित्त का अवक्रंगमन, आत्मा का सन्मुख होना, मार्गभिमुख कहलाता है। मन्द मिथ्यात्व रुप क्षयोपशम से जीवात्मा का भौतिक उपादेयता से कुछ विमुख होकर, चित्त के अवक्रगमन के प्रति सन्मुख होना, मार्गाभिमुख कहलाता है। प्र.654 अपुनर्बन्धक, अविरत और सम्यग्दृष्टि जीव (देश विरत / सर्व विरत) के गुणस्थानक में भेद क्यों होता है ? उ. भावों में भेद होने से उनके गुणस्थानक में भेद होता है । ++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ 178 पांचवाँ चैत्यवंदना द्वार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004240
Book TitleChaityavandan Bhashya Prashnottari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVignanjanashreeji
PublisherJinkantisagarsuri Smarak Trust
Publication Year2013
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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