________________
प्र.527 लोक विरोधी धर्मी स्व और पर दोनों के लिए अनर्थकारी और आत्म ?
घातक कैसे होता है
जब धार्मिक जीव (साधक) लोक विरुद्ध कार्य करता है, तब लोक उसके विरुद्ध में आ खडे हो जाते है । उन विरोधीजनों के देखकर उस साधक के मन में द्वेष आदि कषाय भाव उत्पन्न होते है, जो उसके आत्म पतन के कारण बनते है | साधक द्वारा कृत लोक विरुद्ध कार्य से धर्म की निंदा होती है । धर्मादि की निंदा से विरोधीजनों के मन में द्वेष आदि संक्लेश भाव उत्पन्न होते है, जो अशुभ कर्म बन्धन का कारण बनते है । धीरेधीरे उन लोगों के मन में धर्म के प्रति अहोभाव कम हो जाते है और कभीकभी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि उन लोगों के मन मानस में धर्म के प्रति विश्वास ही उठ जाता है। इस प्रकार से लोक विरुद्ध कार्य स्व : और पर दोनों के लिए अनर्थकारी व आत्मघातक होते है ।
1
प्र.528 यहाँ लोक शब्द किस रूप में विवेक्षित है ?
शिष्ट विवेकी लोगों के रुप में विवेक्षित है ।
ज्ञानी, विशिष्टजनों के द्वारा जो कार्य विरुद्ध समझा जाता है, उनका त्याग
करना ।
प्र.529 'गुरूजन पुजा' शब्द से क्या तात्पर्य है ?
उ.
जो गौरव और बहुमान के योग्य होते है, ऐसे त्यागी पंचमहाव्रतधारी साधु भगवंत और माता-पिता की सेवा सुश्रुषा करना, गुरूजनों की पूजा है 1 योग बिन्दु गाथा 110 के अनुसार माता-पिता और विद्यागुरू; इन तीनों के भाई-बहिन आदि सम्बन्धियों, ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध और धर्मोपदेशक इन समस्त शिष्ट पुरुषों को गुरू समझना
उ.
उ.
140
Jain Education International
दशम प्रणिधान त्रिक
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org