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________________ चतुर्थ उद्देशक ___ इस उद्देशक में तेजकाय को भी सचेतन माना है। अग्नि की सचेतनता आत्म सामान्य की तरह है। अग्नि को सचेत सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाण दिये हैं, जैसे-जुगनू का शरीर प्रकाश देता है। ज्वर की उष्णता भी जीव संयुक्त शरीर में ही होती है, मृत शरीर में कभी ज्वर की उष्णता नहीं पाई जाती है अतः अग्नि की स्वाभाविक उष्णता उसके सचेतना को प्रकट करती है। अनुमान प्रमाण से भी अग्नि में सजीवता सिद्ध है, जैसे-अङ्गार का प्रकाश आत्मसंयोगपूर्वक है। जुगनू का शरीर विशिष्ट प्रकाशयुक्त है। अग्नि के सूक्ष्म और बादर-ये दो प्रमुख भेद हैं। अग्नि के अन्य पाँच भेद भी हैं, जैसे-अङ्गार, अग्नि, अर्चि, ज्वाला और मुरमुर। अग्नि के समारम्भ को अत्यन्त भयंकर तथा दिशाओं को जलाने वाला और अत्यन्त पीडाकारी माना गया है। परिज्ञाशील व्यक्ति, जाग्रत व्यक्ति ऐसा कार्य नहीं करते हैं, जिससे अग्नि का संहार हो, अग्नि का घात हो और अग्नि की विराधना हो। __“अगणिं च खलु पुठ्ठा एगे संधायमावज्जंति । जे तत्थ संधाय मावज्जति ते तत्थ परियाविज्जति जे तत्थ परियाविज्जंति ते तत्थ उद्घायंति १/४/३६३१ अग्नि को जलाने से और जलती हुई अग्नि को बुझाने से भी हिंसा होती है। अग्नि को प्रज्वलित करने वाले को भी हिंसा का पात्र बनना पड़ता है क्योंकि अग्नि शस्र अनेक प्राणियों को भस्मीभूत कर देता है। जो अग्नि प्रज्वलित करता है वह महान् कर्म बाँधता है और जो अग्नि बुझाता है वह अल्प कर्म बाँधता है। अग्नि के आरम्भ को एवं उससे होने वाले कर्म बन्धन की क्रियाओं को जानबूझकर विवेकशील बनें, जिससे अशुभ परिणामों की प्रवृत्ति से पूर्णतः बचा जा सके। पञ्चम उद्देशक __ आचासंग सूत्र में वायुकाय जीव का वर्णन न करके इस उद्देशक में वनस्पतिकाय का वर्णन किया है। वनस्पति की व्यापकता इस लोक में है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी वनस्पतियाँ महत्त्वपूर्ण मानी गई हैं। वनस्पतियाँ किस प्रकार की होती हैं? उनका रङ्ग कैसा होता है ? उनका रूप कैसा होता है? और वे कैसे वृद्धि को प्राप्त होती हैं? इनकी सम्पूर्ण जानकारी वृत्तिकार ने दी है। जो वनस्पति का छेदन-भेदन, कुठाराघात करते हैं या उनको काटते हैं वे अपना ही अहित करते हैं। वनस्पति के समारम्भ के कारण से अन्य जल आदि कारणों का भी विनाश होता है पृथ्वी का संतुलन बिगड़ता है। जलीय स्रोत समाप्त होते हैं। वनस्पति की सचेतनता आगमों में सर्वत्र दी गई है। मनुष्य की तरह वनस्पति सचेतन है। मानव शरीर जिस तरह उत्पन्न होता है वैसे ही वनस्पति भी उत्पन्न होती है उनका शरीर बढ़ता है, उनके काटने-छेदने से मिलानता को प्राप्त होती है। मनुष्य आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन ६१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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