________________
की तरह वे भी आहार को ग्रहण करती हैं, जैसे—– यह शरीर अनित्य है, अशाश्वत है, घटता-बढ़ता है, हानि-वृद्धि को प्राप्त होता है, वैसे ही वनस्पतियाँ अपने शरीर में विकार को उत्पन्न करती हैं । वनस्पति का शरीर ज्ञान संयुक्त है, वनस्पतियों में भी सोना और जागना पाया जाता है। लाजवन्ती, धात्री जैसी वनस्पतियाँ सोती और जागती हैं। कुछ वनस्पतियाँ नीचे जमीन में गड़े हुए धन की रक्षा करती हैं। कुछ वर्षाकाल के मेघ की गर्जना से अंकुरित होती हैं। कुछ शिशिर ऋतु में पवन के वेग से अंकुरित होती हैं। अशोक वृक्ष के पल्लव और फूल तभी उत्पन्न होते हैं जब कामदेव के संसर्ग से स्खलित गतिवाली, चपल नेत्रवाली १६ शृंगार से सजी हुई युवती अपने नूपुर से शब्दायमान सुकोमल चरण से उसका स्पर्श करती है । बकुल वृक्ष सुगन्धित मद के फूलों से सिंचन करने से विकसित होता है। विकसित लाजवन्ती हाथ के स्पर्श मात्र संकुचित हो जाती है। ये सभी क्रियाएँ वनस्पति में सजीवता को सिद्ध करने वाली हैं । ३३
वनस्पति के नाना प्रकार के भेद आगमों में दिये गये हैं । मूल रूप से सूक्ष्म और बादर, प्रत्येक व साधारण, वृक्ष, गुच्छा, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग इत्यादि वनस्पतियों का वृत्तिकार ने विस्तार से विवेचन किया है । ३४ वनस्पति के बीज की अपेक्षा से . कई भेद किये गये हैं, जैसे- अग्रबीज, मूल बीज, स्कन्ध बीज, पोरबीज, सम्मूर्च्छन और समासत्व आदि । ३५
षष्ठ उद्देशक (त्रसजीव विवेचन )—--
" त्रस्यन्तीति त्रसा” ३६ जो स्पंदन को प्राप्त होते हैं वे त्रस हैं। त्रस जीवों के मूल रूप से दो भेद हैं - १. लब्धित्रस और २ गतित्रस । योनि की अपेक्षा से भी कई भेद किये गये हैं, जैसे- अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, सस्वेदज, समूर्च्छन, उद्धिज और औपपातिक। आठ प्रकार के जन्म त्रस के कहे गये हैं । वृत्तिकार ने इनको तीन में समावेश कर दिया है— अंडज, पोतज और जरायुज (गर्भजजन्म) या रसज, सस्वेदज उद्धिज (सम्मूर्च्छन जन्म) ।
देव और नारकीय उत्पाद जन्म वाले होने से औपपातिक हैं । यह प्राणी संसार ही है अर्थात् आठ जन्म वाले जीवों का समुदाय संसार है। उक्त सभी के भेद-प्रभेदों का वृत्तिकार ने विस्तार से कंथन किया है। त्रसकाय के दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय संज्ञी और असंज्ञी आदि का विवेचन भी इस उद्देशक में है । शुद्धजल स्वार्थ के वशीभूत होकर कभी - कभी ३७ इन प्राणियों को देवी-देवताओं को भोग देने के लिये मारते हैं । कभी चमड़े के लिम्व्याप्र आदि के चमड़े को उतारते हैं, मांस के लिये बकरे आदि को सूली पर चढ़ा देते हैं, खून के लिये हृदय को निकालते हैं । पित्त के लिये मोर को मारते हैं, चर्बी के लिये बाघ को मारते हैं, मगर, वराह आदि को सताते हैं, पिच्छी के लिये मयूर को मारते हैं। पूँछ के लिये चर्मी
६२
आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org