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________________ गाय के बालों को निकालते हैं, सिंह के लिये मृग का घात करते हैं, दाढ़, नख, केशों, हड्डी आदि के लिये भी पशु वध करने में व्यक्ति जरा-सा संकोच नहीं करता है। अपने मनोविनोद के लिये मनुष्य क्या से क्या अनर्थ नहीं कर डालता है।३८ जो व्यक्ति अपने इष्ट की प्राप्ति के लिये देवी, देवताओं के सामने सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त देह को समर्पित करता है वह मानवीय तत्व को नष्ट करता है। यही विद्या, मंत्र, तंत्र आदि अन्धविश्वास के सूचक हैं, जो व्यक्ति सम्पूर्ण जगत की भलाई चाहता है, पर्यावरण को बचाना चाहता है वह ऐसा कृतघ्न कार्य कभी भी नहीं करेगा। परिज्ञाशील व्यक्ति वही, है जो प्राणी मात्र के संरक्षण में अपना योग लगाता है।३९ सप्तम उद्देशक जो बहती है या जीवन दान देती है वह वायु है।४० वायु चेतना वाली है। वह दूसरे के द्वारा प्रेरित किये बिना ही गति करती है। इसके साथ कई उड़ते हुए प्राणी भी हैं जो एकत्रित होकर अन्दर गिरते हैं और वायु की हिंसा के साथ दुःख पाते हैं, मूर्च्छित होते हैं और मृत्यु को प्राप्त करते हैं। वायुकाय के मूलतः दो भेद हैं-१. सूक्ष्म और २. बादर। यह सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। इसके अवान्तर पाँच भेद हैं- .. १. उत्कलिका, २. मंडलिका, ३. गुन्जा ४. घनवात, ५. शुद्धवात । इसमें वायु से घात होने वाले प्राणियों का भी अलग-अलग रूप में वर्णन किया है। सामान्य रूप में गृह में प्रयुक्त होने वाला विजना, सूप पत्र, वस्त्र आदि के हिलाने से जीवों का समारम्भ होता है। गतिमान वायु निश्चित ही विनाश का कारक है। इसलिए वृत्तिकार ने उत्कलिका (बवंडर), मंडलिका (चक्रवात), गुंजा (गूंजने वाली), घनवात (पृथ्वी हिम पटल को हिला देने वाली) और शुद्धवात (सामान्य रूप से चलने वाली वायु) को घातक माना है। प्रज्ञावान पुरुष आत्महित की इच्छा के कारण सभी प्रकार के वायु संघात को, वायु प्रदूषण को, वायु पर्यावरण को, अच्छी तरह समझता है, उस पर विचार करता है २ और वायु समारम्भ के परित्याग को जीवन का अङ्ग बनाता है। जहाँ अहित है वहाँ पर्यावरण का प्रदूषण है, समारम्भ है और जहाँ हित है वहाँ समग्र वातावरण समृद्ध है। स्वच्छ वायु ही स्वच्छ जीवन है निरोगी काया है। इस तरह षटकाय अर्थात् छ: काय जीवों की सुरक्षा का विवेचन वृत्तिकार ने किया है। इसमें पृथ्वी, जल की महिमा, अग्नि की गरिमा, वनस्पति की उपयोगिता और वायुमण्डल की सुरक्षा पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। पञ्च तत्व के रूप में प्रचलित पृथ्वी जल, अग्नि, वायु और वनस्पति तथा संवेदन स्पन्दन से युक्त समस्त त्रस जीवों के सरंक्षण का पर्याप्त आचाराङ्ग-शीलावृत्ति : एक अध्ययन 53 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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