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विवेचन किया गया है वह ज्ञान नय और चरण नय पर आधारित है । आचारांग में ज्ञान की प्रधानता है, आचार-विचार की उज्ज्वलता है इसलिये वृत्तिकार ने सूत्र की गुत्थियों को सुलझाने के लिये नय मार्ग का सहारा लिया। उन्होंने दुर्नय को कहीं भी, किसी भी जगह प्रवेश नहीं करने दिया । वे सुनय को भी केन्द्रबिन्दु बनाकर प्रथम अध्ययन के सातों उद्देशकों में सम्यक्त्व को, आत्म तत्त्व को और आत्म विकास को अधिक बल देना चाहते हैं । उन्होंने यह भी कहा है कि ज्ञान के अभाव में क्रिया कुछ भी कार्य नहीं कर सकती है और क्रिया के अभाव में ज्ञान सम्यक्त्व की ओर अग्रसर नहीं हो सकता है। उन्होंने एक दृष्टान्त भी दिया कि देखता हुआ लँगड़ा अग्नि की ज्वाला में अवश्य जलेगा और दौड़ता हुआ अन्धा देखने के अभाव में अवश्य ही अधोगति एवं अग्नि को प्राप्त होगा । ज्ञान और क्रिया लँगड़े और अ की तरह है। लँगड़ा देखने का कार्य करता है वह ज्ञान से युक्त है परन्तु अन्धा क्रिया के कारण अपने गन्तव्य मार्ग को प्राप्त हो पाता है । ४३ महाव्रती श्रमण प्रज्ञा के आधार पर एवं चारित्र की प्रमुखता के कारण शस्त्र परिज्ञा (हिंसा और अहिंसा) को जान लेता है।
द्वितीय अध्ययन : लोक-विजय
लोक-विजय अध्ययन में छः उद्देशक हैं। जिनमें बाह्य और अभ्यान्तर दृष्टियों से लोक का मूल्यांकन किया है। लोक मिथ्यात्व है, उपशम भी है, क्षय भी हैं और क्षयोपशम भी। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र भी है। परम आनन्द के प्रतीक मोक्ष का कारण भी संसार है । संसार में बन्ध भी है और मोक्ष भी । आसक्ति, राग, द्वेष, मोह आदि भी हैं । अतः पञ्च महाव्रतों में प्रवीण प्रज्ञा पुरुष लोक की विजय प्राप्त करता है । ४ लोक में स्वजन भी हैं, माता-पिता, भाई-बन्धु, कुटुम्बीजन भी आते हैं । ये सभी बाह्य संसार के कारण हैं । बाह्य संसार के संसर्ग से आसक्ति, ममता, स्नेह, वैर, अहंकार, मान, माया, लोभ और कषाय आदि के कारण भी बनते हैं । यह बाह्य संसार से उत्पन्न होने वाला संसर्ग आभ्यन्तर संसार है ।
‘लोक्यत इतिलोक’४५ अर्थात् जिसे देखा जाये या जो प्रतीत होता है वह लोक है । लोक संसार या विश्व के विषय में आगमों और सिद्धान्त ग्रन्थों में यह कथन किया गया है कि जिसमें धर्म, अधर्म, अस्तिकाय अर्थात् जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश ये अस्तिकाय और काल द्रव्य जाता है वह लोक है। लोक छः द्रव्यों के समुदाय का नाम है । लोक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चार प्रकार का है, उसके २४ भेद हैं । कषाय भी लोक है । अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों के कारण से भी लोक उत्पन्न होता है । इस तरह प्रारम्भिक प्रस्तावना में वृत्तिकार ने लोक विजय का नय-निक्षेप आदि की दृष्टि से विवेचन किया है । उन्होंने द्रव्य के स्वरूप का कथन करते हुए सांसारिक और पारमार्थिक लोक के महत्त्व
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आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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