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पर भी प्रकाश डाला है। मूल रूप में जहाँ विषय, सुख, पिपासा, आसक्ति आदि है वहाँ लोक है। इसी क्रम में वृत्तिकार ने द्रव्य संसार, क्षेत्र संसार, काल संसार, भव संसार और भाव संसार पर प्रकाश डाला है। इन पाँच प्रकार के संसार को जीतने वाला लोक विजयी कहलाता है । यह छह उद्देशकों में विभाजित हैप्रथम उद्देशक___ “जे गुणे से मूलठाणे, जे मूलठाणे से गुणे।"४८
मूल सूत्र पर वृत्तिकार ने विस्तृत व्याख्या करते हुए कहा है कि जो गुण हैं अर्थात् विषय हैं, संसार के कारण हैं, वे मूल स्थान संसार रूप ही हैं, जो मूल स्थान हैं वे गुण हैं। विषय संसार रूपी वृक्ष के मूल हैं उनके कारण से काम-वासना उत्पन्न होती है, काम-वासना से चित्त में विकार उत्पन्न होता है और चित्त के विकार के कारण से व्यक्ति विषय-भोगों में वास्तविक आनन्द नहीं ले पाता; क्योंकि विषय-भोग आसक्ति है, मुग्धता है एवं भ्रान्ति है। इससे ही संसार है। संसार विषय सुख पिपासा है, संसार में कर्म प्रधान है, कषायों को स्थान दिया जाता है। मोह के कारण से मनोज्ञ विषय में राग भाव उत्पन्न होता है और अमनोज्ञ विषयों के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है। विषयों के कषाय, प्रमाद, राग, द्वेष आदि भावना उत्पन्न होती है।४९ इस संसार में मनुष्यों की आयु अतिअल्प है। वृद्धावस्था के कारण कान, आँख, नाक, जीभ और स्पर्शन इन्द्रिय क्षीण हो जाती है आयुष्य बन्ध के समय आयु की स्थिति को देख कर प्राणी दिग्मूढ़ हो जाता है। वृत्तिकार ने आयु के उपक्रमों की सामान्य गणना इस प्रकार की है-दण्ड, चाबुक, शस्त्र, अग्नि, पानी में डूबना, विष, सर्प, शीत, उष्ण, अरति, भय, भूख, प्यास, व्याधि, टट्टी-पेशाब का निरोध, भोजन की विषमता, पीसना, घोटना, पीड़ा देना आदि आयु को मध्य में तोड़ने वाला उपक्रम है।५० मनुष्य जन्म बहुमूल्य है चाहे वह किसी भी अवस्था का भी क्यों न हो। यह जन्म जरा और भरण त्राण देने वाली नहीं है। शरणभूत नहीं है एक मात्र शरण ज्ञान, दर्शन और चारित्र प्रधान धर्म है। आत्मा के कारण से हित होता है। हित मोक्ष है, आत्म-कल्याण के लिये प्रयत्न करना उचित और हितकारी है।५२ द्वितीय. उद्देशक
"अरइं आउट्टे से मेहावी, खणंसि मुक्के ।"५३
“संयम के प्रति होने वाली अरुचि को दूर करें ताकि शीघ्र ही मुक्त हो सको” आत्म-कल्याण के लिये सम्यक्रत्न आवश्यक है। इसलिये किंचित् भी अरति न करें। चारित्र मार्ग को स्वीकार करके पाँच प्रकार के आचार का विधिवत पालन करें।५४ संयम में अरति होने का कारण इन्द्रियजन्य सुख में रति है। इन्द्रिय सुख संयम के बाधक हैं। पुण्डरीक को इन्द्रिय सुख की अभिलाषा हुई थी, परन्तु संयम आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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