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में रति के कारण अरति को दूर न कर सका । संयम अंगीकार करना अत्यन्त कठिन . है परन्तु जो इन्द्रिय सुख से विरक्त है वह अनुपम सुख का अधिकारी है । ५५ संयमी के सामने चक्रवर्ती और इन्द्र का सुख भी नगण्य है । ६ संयमी आत्मा को संयम से अनुपम शान्ति, अतुल सुख उत्पन्न होता है । आचारांग सूत्र में कहा है- “विमुत्ता ते जणा जेजणा पारगमिणो । ”
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देही मनुष्य अर्थात् उन्हें ही मनुष्य कहा जाता है जो विमुक्त है और पारगामी है। इस द्वितीय उद्देशक में वृत्तिकार ने संयम की उत्कृष्टता पर पर्याप्त प्रकाश डाला है । इसी तरह वृत्तिकार ने इन्द्र समारम्भ के विषय में लिखा है कि जो बल प्राप्ति के कारण, माता-पिता आदि स्वजनों के कारण अथवा विषयं कषाय आदि के कारण जीव अन्य प्राणियों में दण्ड (हिंसा) समारंभ करता है । वह अहित करने वाला है, अज्ञान को बढ़ाने वाला है इसलिये प्रज्ञावन्त को चाहिए कि वह न तो स्वयं दण्ड समारंभ करे न दूसरों से दण्ड समारंभ करावे और न दण्ड समारंभ करने वाले का समर्थन ही करे। इस प्रकार तीन करण एवं मनसा, वाचा और कर्मणा – इन तीन योगों से पूर्णतः दण्ड समारंभ का परित्याग करे | १७
तृतीय उद्देशक
संयम की दृढ़ता अज्ञान और आसक्ति के अभाव होने पर ही आती है । लोभ कषाय की तरह मान कषाय भी अरति का कारण है । कषायों के अभाव होने पर आसक्ति घटती है । ५८
वृत्तिकार ने बन्ध, उदय और सत्ता की अवस्थाओं का वर्णन किया है। वर्णन करने में अपनाया है५९_
अपेक्षा से जीवात्मा की विविध वृत्तिकार ने निम्न भङ्ग शैली को
१. नीच गोत्र का बन्ध
२. नीच गोत्र का बन्ध
३. नीच गोत्र का बन्ध
४. उच्च गोत्र का बन्ध ५. उच्च गोत्र का बन्ध
६. बन्ध भाव
७. बन्ध भाव
नीच गोत्र, उच्च गोत्र में यह प्राणी अनेक बार उत्पन्न हुआ है और होता है इसलिये उच्च गोत्र का अभिमान नहीं करना चाहिए एवं नीच गोत्र के कारण दीनता नहीं लाना चाहिए। जो ऐसा करता है वह स्वयं दुःखी होता है । उच्च, नीच स्थानों में जन्म कोई नवीन कार्य नहीं है क्योंकि पूर्व में अनेक बार जन्म लिया । अतः
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आचाराङ्ग- शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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नीच गोत्र का उदय और नीच गोत्र की सत्ता । नीच गोत्र का उदय और उभय की सत्ता । उच्च गोत्र का उदय और उभय की सत्ता । नीच गोत्र का उदय और उभय की सत्ता । उच्च गोत्र का उदय और उभय की सत्ता । उच्च गोत्र का उदय और उभय की सत्ता । उच्च गोत्र का उदय और उच्च की सत्ता ।
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