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अभिमान आसक्ति और विषाद का कोई कारण नहीं है। अन्धत्व, बधिरत्व, मूकत्व, काणत्व, कुण्टत्व, कुब्जत्व, वडभत्व, श्यामत्व, शबलत्व आदि की विविध यातनाएँ, विविध पदार्थों में प्राप्त की हैं। वृत्तिकार ने अन्धत्व, बहित्व आदि शब्दों के विषय एवं कारणों का भी उल्लेख किया है। जन्म और मरण का यह चक्र अनादि काल से चलता हुआ प्राणियों को दुखित कर रहा है। अतः जो व्यक्ति अपने जीवन की तरह दूसरे के जीवन को प्रिय समझता है वह किसी भी प्रकार से आसक्ति न करे। मान और भोगों से विरक्त मुक्ति पथ की ओर अग्रसर हो।६० चतुर्थ उद्देशक
“रोग समुप्पाया समुप्पज्जंति"६१ अर्थात्३२ रोग उत्पत्ति का प्रमुख कारण आसक्ति है। आसक्ति से कर्म बन्धन, कर्म बन्धन से आध्यात्मिक मृत्यु, आध्यात्मिक मृत्यु से दुर्गति और दुर्गति से दुःख उत्पन्न होते हैं। आसक्ति संताप का कारण है। इससे विवेक बुद्धि पर भी आवरण पड़ता है। जिसके कारण नीति-अनीति, हित-अहित आदि का ज्ञान नहीं होता है। इस भव परम्परा से युक्त चतुर्थ उद्देशक में शुभ और अशुभ कर्मों के परिणामों का कथन भी करता है। वृत्तिकार ने सनत कुमार और ब्रह्मदत्त के दृष्टान्त दिये हैं। सनत् कुमार चक्रवर्ती के दृष्टान्त के द्वारा यह स्पष्ट किया है कि वे ऐसे महापुरुष थे जो वेदना के उपस्थित होने पर शान्त चित्त से उपवेदना को सहन करते हैं। दूसरे ब्रह्मदत्त के दृष्टान्त से यह दर्शाया गया है कि जो भोगों में आसक्त रहता है वह सप्तम नरक के दुःख को प्राप्त होता है।६३
जो राग-द्वेष, कषाय आदि से दुखित आशा और संकल्पों से युक्त बना रहता है वह अपने वास्तविक स्वभाव को भूल जाता है तथा निरन्तर मूढ़ बना हुआ धर्म को नहीं जान पाता है जो आत्मस्वरूप ज्ञान, दर्शन और चरित्र में शिथिल हो जाता है वह प्रमादयुक्त हो जाता है। वृत्तिकार ने प्रमाद के पाँच भेद गिनाये हैं
१. मद्य, २. विषय, ३. कषाय, ४. निद्रा और ५. विकथा।६४
ये पाँचों संसार समुद्र में गिराने वाले हैं५ भोग किपांक फल की तरह मनोहर और चित्त को लुभाने वाले हैं इसलिये सम्यक् मार्ग के इच्छुक मुनि/मुमुक्षु आत्मानुशासन की ओर. अग्रसर हों। पञ्चम उद्देशक- सुख-दुःख की प्राप्ति और उसके परिहार के उद्देश्य से गृहस्थ अपने निमित्त पुत्र, पुत्री बहु-कुटुम्बी, जाति-जन, धाई, दास-दासी, नौकर-चाकर आदि के लिये विविध प्रकार के शस्रों द्वारा (उपार्जन के कारणों द्वारा) आहार आदि बनाते हैं, उनका संग्रह करते हैं।६६ संयमी जीवन के लिये छः प्रकार के कारणों से आहार को ग्रहण करते हैं-१. क्षुधा वेदनीय की शान्ति के लिये। २. आचार्य आदि. की सेवा के लिये।
आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
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