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________________ ३. विहार करने के लिये । ४. संयम की रक्षा करने के लिये । ५. प्राणों की रक्षा करने । के लिये । ६. स्वाध्याय तथा धर्म साधना के लिये। __इसी क्रम में साधुचर्या के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। उन्होंने भिक्षावृत्ति में लगने वाले दोषों को भी दर्शाया है। इससे बचने के निम्न कारण हैं कालज्ञ, बलज्ञ, मात्रज्ञ, क्षेत्रज्ञ, दाणज्ञ, विनयज्ञ, स्व-समय, परसमयज्ञ, भावज्ञ, परिग्रह ममत्वहीन, कालानुज्ञ और अप्रतिज्ञ ।६७ षष्ठ उद्देशक ___“साधयति स्व पर कार्याणीति साधुः अर्थात् जो स्व और पर के साधन का कार्य करता है वह साधु है। साधु को चाहिए कि वे ममता का पूर्णता परित्याग करके ही विचरण करे क्योंकि ममत्व परिग्रह है। परिग्रह द्रव्य और भाव रूप है, ब्रह्म और आभ्यन्तर रूप भी है, जिससे पाप कर्म होते हैं।६८ आगम एवं सिद्धान्त ग्रन्थ में १८ पाप स्थान गिनाये गये हैं उनका तीन करण और तीन योग से त्याग करना साधु का धर्म है।६९ इस उद्देशक में ममता और ममत्व बुद्धि के त्याग करने का प्रमुख उपदेश दिया गया है जब व्यक्ति अपने निज स्वभाव को भूल कर परस्वभाव में ममत्व रखता है तब आत्मस्वरूप को भूल जाता है वह आसक्ति से युक्त हो जाता है । शारीरिक और मानसिक दुश्चक्र में फँस जाता है। इसलिये ही प्रज्ञाशील पुरुष ममत्व बुद्धि को त्यागकर मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर होता है। तृतीय अध्ययन : शीतोष्णीय द्वितीय अध्ययन तक षट्काय जीव की रक्षा का विवेचन था। तृतीय अध्ययन में मुमुक्षु के परम तत्व की साधना का उपदेश दिया गया है। मुमुक्षु दो प्रकार के उपक्रम को करता है, वह अपने मार्ग में अनुकूल एवं प्रतिकूल आये हुए संयोगों से लड़ता है। शीतोष्णीय नामक इस अध्ययन मे–१. भावशील और २. भाव उष्ण के स्वरूप को स्पष्ट किया है। परीषह, प्रमाद, उपशम, विरति और सातावेदनीयजन्य सुख भाव शीत है। तप में उद्यम, कषाय, शोक, वेद, अरति और दुःख-ये भाव उष्ण परीषह हैं।७° मूलत: २२ परीषह सिद्धान्त ग्रन्थों एवं आगमों में प्रतिपादित किये जाते हैं।७१ स्त्री परीषह और सत्ताकार परीषह भावमन के अनुकूल होने के कारण शीत परीषह हैं और शेष २० परीषह मन के प्रतिकूल होने के कारण उष्ण परीषह हैं।७२ शीत-परीषह भाव-शीत में गिने जाते हैं और उष्ण-परीषह भाव-उष्ण में गिने जाते हैं। वृत्तिकार ने कहा कि जो राग-द्वेष, पाप आदि से शान्त हैं, वे शीत हैं। शीत, सुख का गृह है, आवास है, संयम का कारण है, अभय को प्रदान करने वाला है। आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन ६८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004238
Book TitleAcharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshree Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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