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जीवों की विराधना का निषेध किया है। अपकाय जीवों का अपकायक भी न करें। जिस प्रकार मनुष्य में जीव है उसी तरह से जल भी जीव है जल सचित्त है क्योंकि भूमि को खोदने पर स्वाभाविक रूप से यह प्रकट होता है। "उदयसत्थं समारभ माणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति” २७
सूत्र १/३ सं. २२ । उदक शस्त्र (अपकाय) (जलकाय) का समारम्भ करने वाले अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करते हैं।
आगमों में अपकाय के कई भेद किये गये हैं, जैसे१. सचित्त८, २. अचित्त और ३. सचित्त-अचित्त।
इसके अतिरिक्त सूक्ष्म बादर आदि की दृष्टि से भी अपकाय का विवेचन वृत्तिकार ने विस्तार से किया है। सबसे महत्त्वपूर्ण और विचारणीय संदर्भ निम्न है, जिसमें यह बतलाया गया है कि जल १. शुद्धोदक, २. उष्म, ३. हिम, ४. महिक और ५. हरतनू है
१. शुद्धोदक-तड़ाग, समुद्र, नदी, तालाब और कूप का जल। २. उष्म ३. हिम-शिशिर के समय में शीत पुद्गल सम्पर्क से जो जल प्राप्त होता
४. महिक-गर्भमास में सायं और प्रातः धूमिक पात महिक कहलाता है।
(कोहरा) ५. हरतनू-वर्षा और शरदकाल में हरित तृणों के अंकुर पर जो जलबिन्दु
भूमि के स्नेह के सम्पर्क से उत्पन्न होते हैं वे हरतनू हैं (ओस कण)।
वृत्तिकार ने प्रश्नात्मक शैली में जल का आरम्भ जल की हिंसा से बचने का उपाय दिया है। यद्यपि अन्य मतावलम्बी आजीवक सम्प्रदाय, शाक्य और परिव्राजक आदि अपकाय को संचित नहीं मानते हैं, इसलिये वे स्नान एवं पीने के लिये ग्रहण करते हैं। परन्तु जैन आगमों में श्रमणों का इस प्रकार का समारम्भ का भी निषेध किया है। जल जीव है, जल सचेतन है, जल का अपव्यय, जल का प्रदूषण उचित नहीं है क्योंकि अपकाय का आरम्भ अहितकर है। विवेकवान व्यक्ति आधुनिक पर्यावरण के जल प्रदूषण पर किंचित भी ध्यान करता है तो जल का उपयोग जीवननिर्वाह के अतिरिक्त जल के समारम्भ को अवश्य रोक सकता है तथा उससे होने वाले समारम्भ की रोक के लिये प्रयत्नशील बन सकता है। काम का त्याग करने वाले जल को सचेतन मान कर संयम विधि से जीवनयापन करते हैं।२९
आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
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