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है क्योंकि इस उद्देशक में ज्ञान क्रिया को उपादेय बताया है और कहा है कि ज्ञान क्रिया मोक्ष को प्रदान करने वाली है। द्वितीय उद्देशक
यह उद्देशक पृथ्वी काय से सम्बन्धित है तथा अहिंसक साधक को सूक्ष्म जीवों की रक्षा का उपदेश देता है । वृत्तिकार ने लिखा है कि उपयोग, योग, अध्यवसाय, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, चक्षु दर्शन, अष्ट प्रकार के कर्मों का उदय और बन्ध, लेश्या, संज्ञा, श्वासोच्छवास एवं कषाय यह पृथ्वीकाय जीव में मनुष्य की तरह पाये जाते हैं।२० पृथ्वीकाय की सचेतनता सिद्ध करते हुए वृत्तिकार ने यह भी कथन किया है कि पृथ्वी प्राणवान है, जो इसको खोदते हैं, खनन करते हैं, विविध प्रकार के धातुओं का प्रयोग करते हैं, उन्हें निकालते हैं या उन्हें जानबूझकर संतप्त करते हैं, वे प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही तरह से दुःखी होते हैं।२१ पृथ्वी के मूल दो भेद हैं, द्रव्य पृथ्वी और भाव पृथ्वी। बादर और सूक्ष्म की दृष्टि से भी दो प्रकार की पृथ्वी है। इसके अतिरिक्त पृथ्वी के वृत्तिकार ने ३६ भेद प्रस्तुत किये हैं। अन्य आगम ग्रन्थों में भी ३६ भेद बताये हैं।२२ पन्नवणा सुत्त में पृथ्वी के ४० भेद गिनाये हैं। पहली गाथा में १४ भेद, दूसरी में ८ भेद, तीसरी में ९ भेद और चौथी में भी ९ भेद गिनाये हैं। इसके अतिरिक्त बादर पृथ्वी, खर बादर पृथ्वी आदि के भेद प्रस्तुत किये हैं।२३
पृथ्वी के उक्त भेदों के अतिरिक्त उनके वर्ण, रस गन्ध, स्पर्श आदि भी प्रतिपादित किये गये हैं।४ पृथ्वी के नाना भेद, प्रभेद, वर्ण, आकार, प्रकार आदि की विस्तार चर्चा पर्यावरण की सुरक्षा प्रदान करती है। “पुढविसत्थं समारंभेमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसई”।२५ . अर्थात् पृथ्वी शस्र का समारम्भ करने वाले अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों की (जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, त्रस जीवों की) हिंसा करते हैं, उनका घात करते हैं एवं उनको सताते हैं। पृथ्वी मनुष्य की तरह सचित्त है ।२६ जो पृथ्वीकाय का आरम्भ समारम्भ तीन करण (कृत, कारित और अनोमोदित), तीन योग (मन, वचन और काया)
और तीन काल की अपेक्षा से नहीं करता तथा जो समारम्भ को “ज्ञ” परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से सर्वथा छोड़ता है, वह विवेकी है, वही, कर्म बन्धनों से मुक्त है। तृतीय उद्देशक- .
इस उद्देशक में पृथ्वीकाय की तरह अपकाय के समारम्भ को ध्यान में रख कर उसका भी समारम्भ नहीं करने का निर्देश है । अपकाय में भी जीव है, वे पुरुष महाविथी के ज्ञापक अपकाय के लोक को (जलकाय के जीव समूह को) जानकर अभय की कामना करते हैं क्योंकि लोक में अपकाय जलकाय पर भी जीव निर्भर रहते हैं। इसलिये अपकाय आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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