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१. आहार संज्ञा, २. भय संज्ञा, ३. मैथुन संज्ञा, ४. परिज्ञा संज्ञा, ५. क्रोध संज्ञा, ६. मान संज्ञा, ७. माया संज्ञा, ८. लोभ संज्ञा, ९. ओघ संज्ञा और १०. लोक संज्ञा । सूत्र में नो शब्द निषेध अर्थ में प्रयोग किया है इससे सर्व निषेध और देश निषेध दोनों ही निषेध हो जाते हैं। संज्ञा का सामान्य अर्थ ज्ञान होता है । इस दृष्टि से भी वृत्तिकार ने दो भेद किये हैं - १. ज्ञान संज्ञा, २. अनुभव संज्ञा । १५
मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवल ज्ञान- ये पाँच ज्ञान संज्ञा हैं और अपने कर्मोदय से होने वाली आहार आदि की अभिलाषा रूप संज्ञा और, अनुभवन संज्ञा है। अनुभवन संज्ञा के १६ भेद गिनाये हैं- आहार, भय, परिग्रह, मैथुन, सुख, दुःख, मोह, विचिकित्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ, शोक, लोक, धर्म और घोष । " इह मेगेसि णो सण्णा भवहू"
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प्रस्तुत सूत्र में " णो सण्णा" शब्द इस बात का संकेत करता है कि अनुभवन संज्ञा प्रयोजनभूत नहीं है, ज्ञान संज्ञा ही प्रयोजनमूलक है। इससे यह अभिप्राय निकलता है कि णोर संज्ञा ज्ञान अवबोध का सूचक है। प्राणियों को विशिष्ट ज्ञान न होने के कारण से ही यह ज्ञान नहीं हो पाता है कि वे पूर्व दिशा से आये हैं, पश्चिम दिशा से आये हैं, उत्तर दिशा से आये हैं, दक्षिण दिशा से आये हैं, ऊर्ध्व दिशा से आये हैं या अधो दिशा से आये हैं । सूत्रकार के द्वारा प्रयुक्त दिशा पर वृत्तिकार ने दिशा की व्युत्पत्ति दी और दिशा के भेद भी गिनाये हैं । नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, ताप, प्रज्ञापक और भाव — ये सात दिशाएँ दी हैं। किसी भी वस्तु का नाम दिशा हो तो वह नाम दिशा है, जैसे- चित्रलिखित जम्बूद्वीप का नाम इत्यादि रूप में दिशाओं को दृष्टान्तों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। चार दिशाओं के अन्तराल में चार विदिशाएँ हैं ।
आठ के अन्तराल में ८ और अन्तर हैं। इस प्रकार १६ दिशाएँ हुईं। इसमें ऊर्ध्व और अधो दिशा मिलाने पर १८ प्रज्ञापक दिशाएँ होती हैं। १७ आत्मा का अस्तित्व, आत्मा की सिद्धि, आत्मा का अनुमान, आत्मा की नित्यता, आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी" सिद्धान्त का निरूपण भी प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में है ।
आत्म-चिन्तन, कर्म-चिन्तन, कर्म की व्यापकता कर्म के निमित्त से होने वाले बन्धन मैंने किये, मैंने करवाये, मैंने करते हुए का अनुमोदन किया । इन कर्म समारम्भों का प्रत्याख्यान कर्म के कारण से उत्पन्न होने वाली विविध योनियों का वृत्तिकार ने सूक्ष्म वर्णन किया है । संक्षिप्त रूप में यहा कहा जा सकता है कि शस्त्र परिज्ञा नामक अध्ययन का प्रथम उद्देशक आत्म-विचार को प्रदर्शित करने वाला है । यह कर्म बन्धन की क्रियाओं और उनके कारणों को समझाने वाला
आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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