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ये नव अध्ययन प्रथम श्रुतस्कन्ध के हैं।
आचारांग वृत्तिकार ने प्रथम श्रुतस्कन्ध की तरह द्वितीय श्रुतस्कन्ध का भी इसी दृष्टि से विवेचन किया है।
द्धितीय श्रुतस्कन्ध-द्वितीय श्रुतस्कन्ध में १६ अध्ययन हैं, जो तीन चूलिकाओं में विभक्त हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा यह श्रुतस्कन्ध विषय वर्णन आदि की दृष्टि से बाद का है।११
विषय-परिचय प्रथम अध्ययन : शस्त्र-परिज्ञा
सात उद्देश्कों में विभक्त यह अध्ययन जीव संयम, लोक विजय, भावों की परिशुद्धि एवं षट्काय जीवों की अन्तर कथा को प्रस्तुत करता है। शस्र परिज्ञा में दो शब्द हैं-शस्त्र और परिज्ञा । शस्र का अर्थ है आरम्भ, समारम्भ, हिंसा और परिज्ञा का अर्थ है “ज्ञ” प्रत्याख्यान प्रज्ञा या ज्ञान की क्रिया है अर्थात् इस अध्ययन में जीव संयम हिंसादि परिहार। दूसरे अर्थ में यह कहा जा सकता है कि इसमें हिंसा और अहिंसा का विवेक या परिज्ञा का दर्शन है।
वृत्तिकार ने शस्र परिज्ञा के दो पद दिये हैं१. द्रव्य शस्त्र-तलवार, अग्नि, विष, स्नेह, आम्ल, छार, लवण आदि।
२. भाव शस्र-अन्त:करण-मन, वचन व काबा की प्रवृत्ति । द्रव्य शस्र में साक्षात हिंसा की जाती है, अस्र-शस्र का प्रयोग किया जाता है। भाव शस्त्र में अशुभ . प्रवृत्ति के कारण जीवों के घात के लिये मन, वचन और काया से प्रवृत्ति करता है।
डॉ. परमेष्ठि दास ने आचारांग-एक अध्ययन २ में वृत्तिकार की वृत्ति पर ही इस प्रकार का विवेचन प्रस्तुत किया है कि शस्त्र परिज्ञा नामक अध्ययन हिंसा के साधनभूत उपकरणों पर विवेक दृष्टि जागृत करने की भावना उत्पन्न करता है। वृत्तिकार ने शस्त्र की व्याख्या करने के बाद परिज्ञा के भी दो भेद किये हैं—१३
१. द्रव्य परिज्ञा और २. भाव परिज्ञा।
द्रव्य परिज्ञा के दो भेद किये हैं—१. ज्ञ परिज्ञा और २. प्रत्याख्यान परिज्ञा । ज्ञ परिज्ञा के भी आगम और नोआगम ये दो भेद किये हैं।
आगम और नोआगम के भी कई भेद दर्शाये गये हैं। ज्ञ परिज्ञा में संसार के कारणभूत राग-द्वेषादि अशुभ भावों का परिज्ञान है। प्रत्याख्यान परिज्ञा में राग-द्वेष आदि अशुभ योगों का परित्याग है। इसमें संसार के कारणों का परित्याग तथा संयम और साधना के उपकरणों पर विशेष बल दिया गया है। ५६
आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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