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का है। वीर्याचार अनेक प्रकार का माना गया है। आचारांग वृत्ति के इसी क्रम में श्रमण धर्म का ज्ञान कराते हुए आचार अर्थात् आचारांग के रूप में प्रसिद्ध प्रथम अङ्ग ग्रन्थ के विषय में यह नियुक्ति भी है
___ “अङ्गाणं कि सारो” ? अङ्गों का क्या सार है? इस प्रश्न का समाधान करते हुए लिखा है कि- “आयारो” अङ्गों का सार आचार है। आचार का सार क्या है? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया है
___“अणुओगत्थो सारो तस्सविय परूवणासारो"
अर्थात्-अनुयोग अर्थ चार अनुयोगों के अर्थ का सार रूप आचार है उसकी प्ररूपणा अर्थात् व्याख्या सबसे महत्त्वपूर्ण सार माना गया है, क्योंकि प्ररूपणा सर्वज्ञ कथित है उनकी प्ररूपणा से चारित्र की प्राप्ति होती है। चारित्र की प्राप्ति से निर्वाण प्राप्त होता है और निर्वाण के लिये जिनेन्द्र भगवान् ने अव्यावाद कहा है।
इस विस्तारयुक्त प्रस्तावना में वृत्तिकार ने निक्षेप शैली के माध्यम से वृतों, महाव्रतों, ब्रह्मचर्य की दृष्टि आदि का परिचय भी दिया है। प्रस्तावना के रूप में प्रस्तुत प्रारम्भिक कथन आध्यात्मिक, धार्मिक दृष्टि के विधि-विधान का प्रतिपादन तो करता ही है, साथ ही यह सांस्कृतिक सामग्री के महत्त्वपूर्ण अंशों का भी निरूपण करता है। जहाँ देशकाल का वर्णन है वहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-इन चार वर्णों का विधान भी है। वृत्तिकार ने आचार को मूल बनाकर आचारांग के विषय विभाजन को इस रूप में किया हैविषय-वर्णन
प्रथम श्रुतस्कन्ध बंभचेर नाम के रूप में प्रसिद्ध है। यह श्रुतस्कन्ध मूल और उत्तरगुणों की स्थापना करने वाला महत्त्वपूर्ण अध्याय है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में ९ अध्ययन हैं। इसके ४४ उद्देशक हैं। इन उद्देशकों में वृत्तिकार ने विषय का.खुलासा करते हुए कहीं दार्शनिक शैली, कहीं पारिभाषिक शैली और कहीं विविध व्युत्पत्ति के माध्यम से विषय को सरल एवं बोधगम्य बनाया है। १. सत्यपरिण्णा
(शत्रपरिज्ञा) २. लोगविजयो
(लोकविजय) ३. सीओसणिज्ज
(शीतोष्णीय) ४. सम्मत्ते
(सम्यक्त्व) ५. लोगसारनाम
(लोकसार नाम) . ६. धुर्य
(धुत) ७. महापरिण्णा
(महापरिज्ञा) ८. विमोक्ख
(विमोक्ष) ... ९, उवहाणसुय
(उपधान श्रुत) आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
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