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अर्हत् वचन अनुयोग है वह अनुयोग चार प्रकार का कहा गया है१. धर्मकथानुयोग, २. गणितनुयोग, ३. द्रव्यानुयोग और ४. चरण करणानुयोग ।
धर्म कथा के अन्तर्गत उत्तराध्ययन सूत्र आदि आते हैं। गणितानुयोग के अन्तर्गत सूर्य प्रज्ञाप्ति, चन्द्र प्रज्ञाप्ति आदि आते हैं। द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत पूर्व ग्रन्थ जिसमें सम्यक्त्व आदि का विवेचन होता है। चरण करणानुयोग में आचार से सम्बन्धित ग्रन्थ आते हैं। इसी पद्धति को आधार बनाते हुए वृत्तिकार ने आचार अनुयोग का प्रारम्भ किया है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है-अचारस्यानुयोगअर्थकथनमाचारानुयोगः अर्थात् आचार का अनुयोग अर्थ कथन-पूर्वक आचार का अनुयोग आचारानुयोग है। सूत्र के अनु अर्थात् पश्चात् अर्थ का योग अनुयोग कहलाता है। सूत्र अध्ययन के पश्चात् अर्थ का कथन होता है, ऐसी भावना भी अनुयोग है। अनु का अर्थ है लघु, सूत्र है, जो महान् अर्थ का सूचक है। अर्थात् जहाँ महान् योग है वह भी अनुयोग है, अर्थात् सूत्र लघु रूप में प्रस्तुत किया जाता है, परन्तु उसका अर्थ बृहद् अर्थात् विस्तार विवेचन से युक्त होता है।
अनुयोग के चार भेदों के अतिरिक्त वृत्तिकार ने विषय विवेचन की दृष्टि से प्रत्येक अनुयोग के अलग-अलग भेद भी प्रस्तुत किये हैं, जैसे-द्रव्यानुयोग १. आगम
और २. नोआगम तथा इस द्रव्यानुयोग को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से भी प्रस्तुत किया गया है। इस दृष्टि से द्रव्यानुयोग, क्षेत्रानुयोग, कालानुयोग, वचनानुयोग, भावानुयोग आदि अनुयोगों के रूप को प्राप्त होता है।
"आचर्यते आसेव्यत इत्याचार" अर्थात् “जिसका आचरण किया जाता है या सेवन किया जाता है वह आचार है।” आचार के मूल दो भेद किये हैं-१. द्रव्याचार और २. भावाचार।
इसके अतिरिक्त ज्ञानाचार के आठ भेद किये हैं- जैसे-१. काल, २. विनय, ३. बहुमान, ४. उपधाम, ५. अनिहाव, ६. व्यञ्जन, ७. अर्थ और ८. व्यञ्जन अर्थ।
दर्शनाचार के आठ भेद किये हैं। सिद्धान्त ग्रन्थों में सम्यक्त्व के आठ अङ्गों के रूप में प्रसिद्ध हैं
१. निःशंकित, २. नि:कांक्षित, ३. निर्विचिकित्सा, ४. अमूढ़ दृष्टि, ५. उपबृंहण, ६. स्थितिकरण, ७. वात्सल्य और ८. प्रभावना।
चारित्राचार तीन गुप्ति और पञ्च समिति के रूप में प्रसिद्ध है, जिन्हें अष्ठ प्रवचन माता भी कहते हैं। ' तपाचार छ: भेद के रूप में प्रसिद्ध हैं।
१. अनशन, २. अवमौदर्य, ३. वृत्ति संक्षेपण, ४, रसत्याग, ५. कायक्लेश और ६.संलीनता-ये छः बाह्य तप हैं।
प्रायश्चित्त, विनय, वैयाकृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और उत्सर्ग यह छः आभ्यन्तर तप हैं। इस तरह बाह्य और आभ्यन्तर तप के भेद के कारण से तपाचार बारह प्रकार ५४
आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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