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आचारांग-वृत्ति का प्रतिपाद्य विषय
आगम परम्परा में आचारांग प्राचीन एवं सर्वप्रथम ग्रन्थ है। इसमें श्रमणों के आचार-विचार, विनय, विहार, स्थान, आसन, समिति, उपधि, तप, यम, नियम आदि के विषयों का निर्देश है। यह श्रमणों का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें प्राणीमात्र के जीवन का समग्र चित्रण भी किया गया है। यह श्रमण जीवन का केन्द्रबिन्दु है। इसकी अपनी पहचान है। यह अङ्गों के सार रूप में आचार-विचार की चर्चा करता है। इसका प्रत्येक अध्ययन जीवन के क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। इस कारण से ही ये श्रमणों के आधार का सार है।
___ आचारांग वृत्ति में वृत्तिकार ने सार को सभी दृष्टियों से सर्वोपरि मानते हुए श्रमण जीवन का चित्रण किया है। वृत्तिकार ने आचारांग के सार को समझने से पूर्व “ॐ नमः सर्वज्ञाय” इस मङ्गलाचरण से सर्वज्ञ के लिये स्मरण किया गया है। आगे स्कन्धक छन्द के माध्यम से वृत्तिकार ने जिनेश्वरों को नमन किया है “जो समस्त वस्तुओं, उनकी पर्यायों, उनके विचारों और उनके तीर्थों को तथा तीर्थमार्ग के प्रवर्तकों के द्वारा जिस नयवाद का आश्रय लिया गया है जो विविध है-अङ्गों से युक्त है तथा जिनका मार्ग सिद्धान्त को व्यक्त करने वाला है वे तीर्थ अनादि निधन हैं, अनुपम हैं, उनके द्वारा आचार शास्र को निश्चित किया गया है तथा जगत में उन्हीं का मार्ग अनुपम है।” तीर्थ, समस्त जिनेश्वरों और वीर प्रभु का वृत्तिकार ने स्मरण किया
प्रारम्भिक प्रस्तावना के रूप में मंगलाचरण के उपरान्त वृत्तिकार ने पाँच प्रकार के आचारों का कथन किया है-१. ज्ञानाचार, २. दर्शनाचार, ३. चारित्राचार, ४. तपाचार
और ५. वीर्याचार। .... जो श्रमण इन पाँच प्रकार के आचारों से युक्त होता है वह स्वसमय और परसमय का ज्ञाता होता है। वही, गम्भीर, धीर, शिव और सौम्य गुणों से युक्त होता है। इन गुणों से युक्त श्रमण प्रवचनसार अर्थात् आचार के रहस्य को और वीतरागता के मार्ग को प्राप्त होता है। आचारांग अङ्ग ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध है। इसमें आचार, ब्रह्म, चरण, शस्त्र, परिज्ञा आदि शब्दों का निक्षेप है। जैसे-१. आचार, २. आचाल, ३. आकर, ४. आगाल, ५. आश्वास, ६. आदर्श, ७. अङ्ग,८. आचीर्ण, ९. आजाति १०. आमोक्ष।
आचाराङ्ग-शीलावृत्ति : एक अध्ययन
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