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टब्बा परिचय
नियुक्ति भाष्य चूर्णि एवं वृत्ति की परिसमाप्ति के उपरान्त टब्बा युग का प्रारम्भ होता है, जिसमें प्राकृत और संस्कृत की पारम्परिक पद्धति से हट कर प्राकृत की एक अन्य विधा अपभ्रंश में अपने स्थायीत्व के कारण विवेचनकर्ताओं के लिए इस मार्ग को अपनाना पड़ा।
टब्बा एक संक्षिप्त विवेचन शैली है, जिसे संक्षिप्त वृत्ति, संक्षिप्त टीका, संक्षिप्त विवेचन या संक्षिप्त परिचय भी कहा जा सकता है।
संस्कृत पण्डितों की भाषा थी। संस्कृत के स्थायीत्व ने भाष्य और वृत्तिकारों को जन्म दिया। परन्तु प्राकृत भाषा का अपना स्थान होने के कारण प्राकृत के ग्रन्थों पर प्राकृत में नियुक्ति, चूर्णि आदि विवेचन प्रस्तुत किए गए। वे भाषा के बदलाव के साथ विवेचनकर्ता प्रस्तुति की पारम्परिक पद्धति को छोड़कर जन बोली को भी आदर देने लगता है। यही कारण था कि अपभ्रंश के स्वर्ण युग में अपभ्रंश में आगमों पर अनेक विवेचन प्रस्तुत किए गए। टब्बा का अर्थ विषय को विस्तार नहीं दे पाये, परन्तु संक्षिप्त शैली और जन बोली में जो विवेचन प्रस्तुत किया गया वह टब्बा कहा गया। टब्बाकार कौन?
टब्बाकार में पार्श्वचन्द्र सूरि का नाम प्रसिद्ध है। धर्मसिंह जी महाराज ने २७ सूत्रों पर टब्बे लिखे थे। टब्बे बहुत सुन्दर और स्पष्ट लिखे हुए हैं। इनका प्रकाशन अभी तक नहीं हुआ है।
टब्बा उन लोगों के लिये महत्व का है जो संस्कृत और प्राकृत से अनभिज्ञ हैं। संस्कृत और प्राकृत के अभाव में टब्बाकारों द्वारा लिखित टब्बा के माध्यम से साधारण जन भी आगमों का ज्ञान कर सकते थे। इसलिये इन्हें बालावबोध कहा जाता था। अनुवाद परिचय
आगम सूत्र मूल रूप में प्राकृत में लिखे गये हैं। उन पर टीकाकारों ने संस्कृत एवं प्राकृत में अपनी व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं। उन व्याख्याओं या विवेचनों को पूर्व में विशिष्ट ज्ञानीजन ही अध्ययन कर पाते थे। धीरे-धीरे यह परम्परा लुप्त होती गई। भाषा ने भी विकास को प्राप्त किया। स्थानीय भाषाओं, बोलियों ने अपना आधिपत्य समाया, तदनुसार बदलते भाषा परिवेश में उसी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किये गये, जिस भाषा से आगम के रहस्य को भली-भाँति समझा जा सके। पहले प्राकृत एवं संस्कृत विवेचन को तथा मूल सूत्रों को भाषान्तर रूप में प्रस्तुत किया गया। फिर प्रान्तीय या राष्ट्रीय भाषाओं में। मूलतः उनमें तीन प्रमुख भाषाएँ हैं :
आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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