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अतः भाष्य कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। इनका ज्ञान का महासागर तत्त्व ज्ञान की विशालता को अधिक गहराई तक ले जाने वाला है। भाष्यकारों ने भाष्यों को बहुआयामी बनाने के लिए जो प्रयत्न किया उस पर अनुसंधान किया जाये तो कई अनुसंधानकर्ता अलग-अलग विषयों की दृष्टि से अनेक शोध प्रबन्ध प्रस्तुत कर सकते हैं। शोधपरक सामग्री ज्ञान के क्षेत्र में नयी जागृति ला सकती है। इसलिए भाष्यों पर स्वतन्त्र रूप से अनुसंधान किया जाना चाहिये।
चर्णि परिचय गद्य प्रधान शैली में चूर्णियाँ आचार्यों द्वारा लिखी गई हैं। नियुक्ति और भाष्य के उपरान्त आगम ग्रन्थों के सूत्र शैली के रहस्य का उद्घाटन करने के लिए चूर्णियों की व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई हैं। मूलतः चूर्णिकारों ने संस्कृत में चूर्णियाँ प्रतिपादित की हैं किन्तु संस्कृत के साथ इनमें प्राकृत का भी प्रयोग किया गया है। संस्कृत और प्राकृत मिश्रित चूर्णियाँ जैन सिद्धान्त के रहस्य को विस्तार से प्रतिपादित करने के लिए ही लिखी गई हैं। चूर्णियों के अन्तर्गत प्राकृत भाषा में अनेक कथाएँ भी प्रस्तुत की गई हैं। प्रायः सभी कथाएँ सिद्धान्त के रहस्य को जितना प्रतिपादित नहीं करती हैं उससे कहीं अधिक ये कथाएँ जन-जन में फैले हुए रीति-रिवाजों, मेले, त्योहारों, दुष्काल, चोर, लुटेरे, सार्थवाह, व्यापार के मार्ग, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि की विशेषताओं को प्रस्तुत करने वाली हैं। जैनाचार्यों का मूल कार्य धर्म प्रभावना रहा है। इसलिए उन्होंने जन सम्पर्क के माध्यम के लिये इस तरह की कथाओं का चयन किया। इसलिए इन कथाओं को लोक कथा भी कहा गया है।
चूर्णियों के रचनाकार जिनदास गणि महत्तर माने जाते हैं। इनका समय विक्रम की सातवीं शताब्दी है। चूर्णियों की रचना का समय जहाँ नेमिचन्द शास्त्री ने छठी-सातवीं शताब्दी माना है ° विजय मुनि शास्त्री ने इनका समय सातवीं-आठवीं शताब्दी प्रस्तुत किया है।६१ देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने चूर्णियों के समय के विषय में लिखा है कि आचार्य हरिभद्र ने अपनी वृत्तियों में चूर्णियों का उपयोग किया है इसलिए आचार्य जिनदास गणि का समय विक्रम सम्वत ६५०-७५० के मध्य होना चाहिये। नन्दी-चूर्णि के उपसंहार में उसका रचना समय शक सम्वत ५९८ अर्थात् विक्रम सम्वत् ७३३ है।६२ डॉ. जगदीश चन्द्र जैन ने जिनदास गणि महत्तर की चूर्णियों के आधार पर ई. सन् की छठी शताब्दी माना है।६३ पं. दलसुख मालवणिया ने सातवीं-आठवीं शताब्दी ही चूर्णियों का समय माना है।६४
आगमों पर लिखी गई चूर्णियों में ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक, कलात्मक आदि सामग्री का प्रचुर प्रयोग देखने को मिलता है। इन्हें डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने मानव समाज शास्त्र की संज्ञा दी है और कहा है कि चूर्णियाँ महत्त्वपूर्ण मानव समाज शास्त्र हैं। इनमें सहस्त्रों वर्षों के आर्थिक जीवन का सजीव वर्णन उपस्थित है। उस युग की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालने वाली सामग्री बिखरी पड़ी है। प्राचीन भारत की वेशभूषा, मनोरञ्जन, नगर निर्माण,
आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
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