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प्रतिपादित करने वाला होने से विविध तथ्यों का निरूपण करने वाला है। प्रश्न और व्याकरण ये दोनों ही शब्द विविध प्रकार के अभिप्राय के प्रतिपादक, विवेचक या व्याख्या करने वाले हैं अर्थात् प्रश्न का अर्थ है-पदार्थ को जानने की इच्छा। उस इच्छा के प्रतिपादित जो वाक्य हैं, वे प्रश्न हैं। प्रश्न व्याकरण का अर्थ जिज्ञासाओं के समाधान की खोज है। इस तरह यह आगम महावीर द्वारा प्रतिपादित समाधानों की सम्यक् सूची है जिसमें जगत के सम्पूर्ण मानव के हित के लिये उनकी जिज्ञासाओं के अनुसार शिक्षा प्रदान की गई है।
११. विपाक सूत्र-शुभ और अशुभ ये दो कर्म हैं। दोनों ही कर्मों का विपाक (फल) अर्थात् परिणाम अच्छा-बुरा होता है इसमें अच्छे और बुरे कर्मों की विवेचना है। अभयदेव सूरी ने इसकी वृत्ति में कहा है कि यह विपाक सूत्र पाप और पुण्य के विपाक का वर्णन करने वाला आगम है ।८ स्थानांग सूत्र में इसे 'कम्म-विवाय दसाओ' नाम से स्मरण किया गया है।
इसके दो श्रुत स्कन्ध हैं१. दुःख विपाक और २. सुख विपाक।
दोनों में दस-दस अध्ययन हैं प्रत्येक अध्ययन कथात्मक शैली से युक्त हैं। दुःखी व्यक्ति के जीवन को दर्शाने के लिए दुःख विपाक नामक इस अध्ययन में महावीर से पूछे गये प्रश्नों के समाधान के रूप में किसी व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्त्व को सामने रख कर कर्म की प्रत्येक दुःख रूप अवस्था का विवेचन किया है। पूर्व भव के रूप में कर्मों की विवेचना की गई है। उनमें किसी व्यक्ति विशेष के पूर्व भव को आधार बनाकर अन्धे, लूले, लँगड़े, गूंगे या बहरे आदि के कारणों का कथन किया गया है। मृगापुत्र, उजिका, अभग्नसेन, सघट, वृहस्पति दत्त, नन्दीवर्धन, शौरिय दत्त, देवदत्ता अञ्जु आदि की कथा कर्म विपाक की वास्तविकता को प्रतिपादित करने वाली है। अशुभ कर्म का फल नरक और तिर्यंच के दुःखों को उत्पन्न करने वाला है। अशुभ कर्म से ही संसार परिभ्रमण का कारण बनता है इसलिए कथाओं के अन्त में व्यक्ति को यही शिक्षा दी गई है कि दुष्कर्म या क्रूर कर्मों के कारणों से अपने आप को बचाएँ, दुष्टता से दूर रहें। पहला सुख विपाक से सम्बन्धित इसके द्वितीय श्रुत स्कन्ध में सुबाहु कुमार आदि के पूर्व भव का वर्णन किया है। संयमनिष्ठ जीवन, तपश्चर्यापूर्ण जीवन निश्चित ही कर्म बन्धनों को तोड़ने वाला है। कर्म बन्धन सम्यक्त्व के बाधक हैं। इसलिए संसार सांगर से पार होने के लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र की ज्योतिर्मय दृष्टि को जगाना आवश्यक है। इस सुख विपाक में शुभ कर्म करने वाला सुखपूर्वक अपने साध्य की सिद्धि करने में समर्थ होता है।
अङ्ग और उपांग शुरू से ही प्रचलित हैं। अङ्ग ग्रन्थों में आचारांग आदि का विवेचन है और उपांग ग्रन्थों में औपपातिक आदि द्वादश उपांग आगमों को रखा जाता है। आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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