________________
विधि को लिपि बद्ध करके अनेक रूपों में विभक्त किया है। यद्यपि आगम अनादि हैं। वे अर्थागम के रूप में हैं और सूत्र आगम रूप में भी हैं फिर भी आगम की अक्षय निधि सभी तरह से अपना विशिष्ट स्थान रखती है। आगम के विषय में बहुत कुछ कहा या लिखा जा सकता है, परन्तु उसके विस्तार में न जाकर उसकी सामान्य जानकारी से पूर्व आगम जिस रूप में हमारे सामने आए उनका उल्लेख भी करना आवश्यक है।
आगम वाचना जो आगम श्रुत रूप में पूर्व परम्परा से चले आए हुए थे, जिसकी श्रुत धारा अबाध गति से चलती रही वे श्रुत ज्ञान के विषय से औसत होने लगे तब श्रुत परम्परा की सुरक्षा का उपाय किया गया होगा।
आगम, जो पूर्व में श्रुत के रूप में विख्यात थे, महावीर के पश्चात् उन्हें विधिवत् ज्ञान, साधना एवं स्मृति के आधार पर लिपिबद्ध किया गया। आचार्यों ने समय-समय पर विविध वाचनाएँ कीं। उनके आधार पर आगम को सुरक्षित किया गया। आगम की प्रचलित वाचनाएँ विचारकों की दृष्टि से निम्न प्रकार हैं
१. पाटलीपुत्र वाचना-यह प्रथम वाचना महावीर निर्वाण के पश्चात् (१६० वर्ष के पश्चात्) पाटलीपुत्र-पटना में बारह वर्ष के भीषण अकाल के पश्चात् हुई थी, जिनमें ग्यारह अङ्गों का संकलन किया गया। बारहवें अङ्ग ग्रन्थ के ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी थे।
२. द्वितीय वाचना-महावीर निर्वाण के १६० वर्ष के पश्चात् सम्राट खारवेल के समय में द्वितीय वाचना हुई थी। हाथी गुंफा शिलालेख से यह स्पष्ट है।
३. मथुरा वाचना–वी. नि. सं. ८२७-८४० में आचार्य स्कन्दिल ने अपने नेतृत्व में श्रमण संघ का सम्मेलन बुलाया। उस समय स्कन्दिलाचार्य ने मथुरा में आगमों की सुरक्षा एवं विवेचन की दृष्टि से सम्मेलन कराया, जिससे श्रुत ज्ञान का विलुप्त भण्डार पुनः प्रकाश में आया।
४. वल्लभी वाचना-वी. नि.सं. ८२७-८४० में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में यह वाचना सौराष्ट्र प्रान्त के वल्लभी नगर में हुई थी, जिसे नागार्जुनीय वाचना भी कहा जाता है.।२१ . . .
५. वल्लभी वाचना-देवर्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में पुनः श्रमण संघ का सम्मेलन बुलाया गया, जिसमें श्रुत साहित्य के अंशों को पाठ-पाठान्तरों के रूप में भी स्थान दिया गया है। देवधिगणी की यह वल्लभी वाचना सम्पूर्ण आगम साहित्य की प्रचलित परम्परा की साक्षी है अर्थात् आगम अङ्ग आगम आदि साहित्य का सम्पूर्ण विभाजन विषय आदि की दृष्टि से इस वल्लभी वाचना में स्पष्ट हुआ है। आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org