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सिद्धान्त, वचन, आप्त वचन, उपदेश प्रज्ञापना आदि भी कहा गया है। एतिह्न आम्नाय, जिन-वचन का नाम ही आगम है।
आगम की व्युत्पत्ति
आगम शब्द –'आ' उपसर्ग पूर्वक 'गम्' धातु से उत्पन्न हुआ है 1 'आ' उपसर्ग का अर्थ पूर्ण है जिसे 'समन्तात्' शब्द से स्पष्ट किया गया है और 'गम्' धातु का अर्थ 'गति', चेष्टा या प्राप्ति / उपलब्धि, जो प्राप्त किया जाए, उसे गति कहते हैं। इसलिए आगम की व्युत्पत्ति 'आ - समन्ताद् गम्यते वस्तुतत्त्वमनेनेत्यागमः', की जाती है अर्थात् 'आ' उपसर्ग से समन्तात् की प्राप्ति जिससे हो, वह आगम वस्तु तत्त्व का बोध कराने वाला है।
आगम का स्वरूप
सम्यक् शिक्षा का बोध कराने वाला विशेष ज्ञान जिसे प्राप्त हो वह 'आगम' है, शास्त्र है, आगम शास्त्र है और श्रुत है । श्रुत ज्ञान भी है । ' आप्त के वचन आदि से होने वाले ज्ञान को भी आगम कहते हैं, क्योंकि वस्तु तत्त्व का परिपूर्ण ज्ञान आगम से ही होता है। इसलिए जिससे वस्तु तत्त्व का परिपूर्ण ज्ञान हो वह आगम है । सकल श्रुत के विषय की व्याप्ति रूप से मर्यादा से जो वस्तु तत्त्व की यथा रूप में प्ररूपणा की जाती है या अर्थ का बोध कराया जाता है वह 'आगम है। आगम मूल रूप में सर्वज्ञ उपदिष्ट अर्थ है । गणधरों ने जिन्हें सूत्र रूप में गुंजित किया है तथा उस आगत परम्परा, जो आचार्यों द्वारा यथार्थ स्थान निर्दिष्ट किया हो, वह आगम है । आचारांग वृत्ति में यही कहा गया है । आगम में आप्त का उपदेश है । 'श्रुतमिति श्रुतज्ञानं' अर्थात् आगम श्रुत है, श्रुतज्ञान है ।
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आप्त वचन से उत्पन्न अर्थ ज्ञान 'आगम' है । अर्थात् जो आप्त का कहा हुआ है वह वादी प्रतिवादी द्वारा खण्डित नहीं किया जा सकता । प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों से विरोध रहित है, जिसमें वस्तु तत्त्व का उपदेश है, जो सब जीवों का हित करने वाला है और मिथ्यापथ का खण्डन करने वाला है, वह सत्यार्थ शास्त्र आगम । आवश्यक निर्युक्ति में इसी भाव को स्पष्ट करते हुए कथन किया है कि अर्हन्त अर्थ रूप में उपदेश देते हैं, गणधर अपनी निपुणता से सूत्र रचते हैं तथा शासन के हित के लिए उन सूत्रों का प्रवर्तन किया जाता है। आचार्य सिद्धसेन ने ‘सम्मइ सुत्त' में उपयुक्त कथन किया है। मूलाचार के प्रणेता बट्टकेर ने कथन किया है कि सूत्र गणधर कथित है, प्रत्येकबुद्ध द्वारा निरूपित है, श्रुतकेवली द्वारा प्रतिपादित है। इसके अतिरिक्त आगम दस पूर्व के रूप में भी निरूपित है।
में कथित है,
इस तरह आगम के विविध स्वरूप एक ही विषय को प्रतिपादित करते हैं कि आगम पूर्व परम्परा से आगत है । अर्हत् द्वारा अर्थ रूप गणधरों द्वारा सूत्र रूप में निरूपण किया गया है और आचार्यों द्वारा उस श्रुत
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आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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